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पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

 

हर एक पग जो मैं चला था
वो तेरे पथ ही गया था,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था।
 
तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन।
 
तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं!
 
विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट सँजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा।

द्वंद्व जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।
 
आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता।
 
मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ?

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