वक़्त की शतरंज
काव्य साहित्य | कविता शार्दुला नोगाजा (झा)3 May 2012
है वक़्त भी शातिर खिलाड़ी
खेल पक्के खेलता है।
शतरंज पे मोहरे बिछा कर,
आगे-पीछे ठेलता है।
हो कहीं भी प्यादा, घर
बस एक ही चल पायेगा
घोड़ा बिदक ढाई चले,
और ऊँट टेढ़ा जाएगा।
रानियाँ हर देश में
राजा पे ख़ुद को वारतीं
परदेस में रह कर भी
घर की सभ्यता नहीं हारतीं।
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