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व्यापार में घाटे के दौरान पिता की मृत्यु के पश्चात भाई ने घर की आर्थिक स्थिति सँभाली। किशोरी उम्र की नीलिमा तब ज़िंदगी के संघर्ष से प्रथम बार रूबरू हुई। आर्थिक संघर्ष से दो-चार होते हुए जब उसकी शादी बहुत संपन्न परिवार में हुई तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।

"कैसे भूखे-नंगे समधियों से पाला पड़ा है। दहेज़ में तो देखो, इन्होंने क्या चिथड़े दिए हैं।" शादी के पश्चात प्रथम दिन सबके सामने सास के ये ताने सुनकर नीलिमा अपमान का विषैला घूंट पीकर रह गई। 

माँ के आँचल में बँधे पति ने उसका कभी पक्ष नहीं लिया। नीलिमा ने सोचा, "पति के प्रति समर्पण, असीम प्यार और उसके संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर वह उसके हृदय में स्थाई जगह बना लेगी।" परन्तु वह ग़लत थी। हार न मानकर छोटी ही सही परंतु नौकरी करके आत्मनिर्भर होकर बच्चों की परवरिश जी-जान से करने लगी। ससुराल व पति की प्रताड़ना व अपमान सहते हुए भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए उसने अपने बच्चों को सफलता के ऊँचे मुक़ाम तक पहुँचाया। जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए नीलिमा कब भयानक बीमारी के आग़ोश में चली गई। उसे पता ही न चला। यह उसकी नियति थी या भाग्य की विडंबना। वह कभी समझ न पाई। जीवन के अंतिम दिनों में भी उसका पति उसे अपनी असफलताओं, कष्टों, मुसीबतों का केंद्र मानकर अपमानित करने से नहीं चूका। अंततः मौत ने नीलिमा को अपनी गोद में सुला कर उसके अनंत दुखों,कष्टों एवं संघर्षों का अंत किया।
 

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