युद्ध की विभीषिका!!
काव्य साहित्य | कविता योगेन्द्र पांडेय1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
युद्ध की अग्नि कुंड में धधक रही धरती
त्राहि त्राहि कर सिसक रही आहें भरती॥
ख़ून से लिपटी हुई धरती का आँचल
हाय ये कैसा समय आया, बना खल॥
कहीं माँ की लाश पर लिपटे रो रहे बच्चे
तुम कहते हो इसे, दिन आए हैं अच्छे?
एक दूजे के ख़ून के सब प्यासे यहाँ पर
पग पग पर बिखरी हुई है लाशें यहाँ पर॥
गोली बंदूकों से शान्ति कपोत घायल है
हर कोई बस घृणा के ही क़ायल हैं॥
कोई तो उठे, बोले प्रेम की भाषा
इंसानियत की धूमिल हो गई परिभाषा॥
युद्ध की अग्नि में जल रही सभ्यताएँ
कैसे धरती पर भाईचारा हम लाएँ?
युद्ध शान्ति का कभी विकल्प नहीं होता
काश कोई प्रेम का वट वृक्ष ही बोता॥
भाई का भाई बन गया है दुश्मन
क्यों इतना पतित हो गया है मन?
एक किरण उम्मीद की जगानी होगी
युद्ध की चिंगारी ही बुझानी होगी॥
चाहते हैं सभ्यताएँ जीवित रहें अगर
फूल से शोभित करना होगा डगर॥
आओ मिलकर प्रेम का दीपक जलाएँ
भाईचारे का सभी से रिश्ता निभाएँ॥
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