बसंत बनाम वैलेंटाइन
काव्य साहित्य | कविता महेशचन्द्र द्विवेदी3 Jun 2012
तन में तरंग उठे मन में उमंग उठे,
वसंत ने मदन का एक वाण चलाया है,
गली गली में नाच रहे नर और नारी,
घोर वैरागी का मन भी भरमाया है।
गाँव के आँगन में फुदकती है चिरैया,
जिसकी हर फुदकन पर चिरौटा लुभाया है,
थिरक थिरक झूम झूम नाचते हैं मोर,
निष्ठुर मोरनी ने उनका चैन चुराया है।
कलियों के गालों पर छाई है लाली,
पुष्पों ने प्यार से पीत पराग बरसाया है,
सरसों ने ओढ़ ली है पीली प्रीत चादर,
आमों का प्रत्येक अंग-अंग बौराया है।
प्यार भरे नैना हो रहे हैं चार, मेरे गाँव
की बयार ने प्यार का गीत गाया है,
चहुंदिश बरस रही है रस की फुहार,
सुना है मेरे गाँव में फिर वसंत आया है।
किशोर वय के छोर की हिमाकत तो देखो,
आंटी को अपनी वैलेंटाइन बनाया है,
बेधड़क कहता है आंटी हैं तो क्या हुआ,
मैंने दिल का तार से तार मिलाया है;
बालक, बूढ़े, जवान सब यहाँ वहाँ थिरक रहे,
वैलेंटाइन डे का नशा जो छाया है,
न जाने किस पर डोरे डालने को,
वसंत में पुराने रूमाल को पीला रंगवाया है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
नज़्म
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य कविता
सामाजिक आलेख
कहानी
बाल साहित्य कहानी
व्यक्ति चित्र
पुस्तक समीक्षा
आप-बीती
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं