छब्बीस जनवरी नया रंग लाई है
काव्य साहित्य | कविता महेशचन्द्र द्विवेदी3 Jun 2012
उत्तर में हिमालय पर हेमंत में जब जमती है बर्फ,
चहुँ ओर शीत-लहर और कोहरे की धुंध छाती है,
दिन होता है छोटा और बढ़ती रात्रि की लम्बाई है,
प्रत्येक वर्ष भारत में छब्बीस जनवरी तब आती है।
फिर भी हर वर्ष निकलती है बच्चों की प्रभातफेरी,
सजती हैं झाँकियाँ, जन-गन-मन की धुन छाती है,
हर कोने में होतीं हैं सभायें, हर गली जगमगाती है,
उल्लास से भरत हैं हृदय, जब छब्बीस जनवरी आती है।
बीसवीं सदी मध्य विश्व के अनेक देश थे स्वतंत्र हुए,
दुर्भाग्यवश उनमें अधिकतर धर्मांधता में डूब गये,
आज उन देशों में बन गया शत्रु भाई का भाई है,
वे स्वयं भी त्रस्त हैं और विश्व की शांति गँवाई है।
परंतु भारत के संविधान ने सबको समानता दी,
हर वर्ण, धर्म, लिंग, प्रांत को बराबर मान्यता दी,
मजहब की जगह वैज्ञानिक सोच को प्रधानता दी,
इसीलिये आज यह उत्साह है, प्रगति की लुनाई है।
और अब हमको लगता है कि कहीं कुछ नवीन है,
आज हमारा देश प्रौद्योगिकी और विज्ञान में प्रवीन है,
अब मात्र आशा ही नहीं, वरन् विश्वास की गहराई है,
दो हजार आठ की छब्बीस जनवरी नया रंग लाई है।
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