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एक शोर था, एक वीरानगी थी

(पिछले दिनों सरहद पर हुई सरगर्मियों के दौरान लिखी एक कविता)

 

दम साधे चल रही थी
हक़ीक़त
चुपचाप।
निःशब्द।
  
बेरौनक मंज़र लुटा-पिटा-सा
सभी के दिलों में था शोर
संगीनों का
 
घर के आँगन में आ पहुँची थी
सरहद से गोली
आँगन में बैठी थी माँ
कल रात
सोच रही थी- आने वाली है दीवाली।
 
माँ के सीने में अब बारूद है,
वह सो गई है हमेशा के लिए।
उसके सिरहाने रखा है जलता हुआ दीया
जो दीवाली से पहले ही जल उठा है।
 
संगीनों के साए तले
मासूम किलकारियाँ सहमी हुई हैं
बीत रहा है उनका बचपन
कारतूसों की गंध के बीच।
 
चीड़ों के ऊँचे दरख्त
भी बेआबरू हैं आज
नहीं रोक पाते हैं
साज़िशों की हवाओं को अब।
इनके नुकीले पत्तों के बीच से
बेआवाज़ निकल जाती है मौत।
 
सन्नाटे के आगोश में
समायी ये सुंदर घाटी
गवाह रहती है अब
बंदूकों की आतिशबाज़ी की।

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