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हमारी कोविड तैयारी

जब से व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक, तथा इंटरनेट में प्लावित ज्ञान की बहुतेरी अन्य नदियों में गोता लगाने का सौभाग्य मिला है, हम बहुत ज़्यादा समझदार हो गए हैं। ’मुंसी’ ’प्रेमचन्द्र’ की कविता, ’गुलजार’ की ’सायरी’, स्वामी विवेकानन्द की सुबीर घोष-जैसी वॉयस ऐक्टरवाली आवाज़, हर दिन पड़ता गणितज्ञ रामानुजन का जन्मदिन - मज़ाल है कि हमसे कोई जानकारी छूट जाए! हमको अब कोई बेवकूफ़ नहीं बना सकता। हमें अच्छी तरह मालूम है कि ताजमहल मन्दिर था, हमारे राष्ट्रपिता मोहनलाल कर्मचन्द गाँधी थे, तक्षशिला बिहार में था, माँस-मछली खानेवाला बच्चा बड़ा होकर आदमियों को खाता है, पाकिस्तान और चीन भारत में प्रदूषण फैलाने के लिए स्पेशल गैस छोड़ते हैं, और हमारी गायों पर धूप पड़ने से सोना निकलता है। 

अब यह मत समझ लीजिएगा कि हम ताज़े-ताज़े अक्लमन्द हुए हैं और पहले निरे लल्लू थे। हमारा वह मतलब बिलकुल नहीं है। हम अब भले ही बहुत ज़्यादा समझदार हो गए हों, लेकिन पहले भी हम बहुत चालाक-चतुर थे। हर विषय में बेशक़ अव्वल नहीं आते थे, लेकिन साल-दर-साल पास तो ज़रूर हो ही जाते थे। हर टीचर की पसन्द-नापसन्द हमको पता थी, सबसे फ़र्स्ट-क्लास रिलेशन मेनटेन करते थे। एक बार केशव बाबू बोले, "बौआ, लगता है कि इस बार फ़ीज़िक्स में लटक जाओगे," तो हम दूसरे ही दिन झट से आधा किलो बेसन के लड्डू थमा कर घिघियाए थे, "मास्साब! देख लीजिए। आप ही का बच्चा हूँ!" इमोशनल इम्पैक्ट काम कर गया था और हम ग्रेस मार्क्स के साथ वैतरणी पार हो लिए थे। जब अंग्रेज़ीवाले अवधेष बाबू, केमिस्ट्रीवाले बिमलबाबू और मैथ्सवाले श्रीकान्त शर्माजी का दल हमारे घर नलीवाली पीस से कुत्ते की तरह चिंचोड़-चिंचोड़कर मटन खा रहा था, तभी हमें भरोसा हो गया था कि हमारा सेकेन्ड डिविज़न तो कहीं नहीं गया। स्कूल हो या कॉलेज, हमने गुरुजनों की पसन्द का हमेशा ख़याल रखा। ’जाएँगे’ को ’जाएगें’, ’शुभकामनाएँ’ को ’शुभकामनाऐं’, तथा ’हम दोनों’ को ’हम 2नो’ लिखते-लिखते हम कब हिन्दी में एम ए हो गए, हमें भी पता नहीं चला। अर्द्धसरकारी उपक्रम में दस वर्षों में हमने हिन्दी सहायक से प्रबन्धक की सीढ़ियाँ किसी अधिकारी को क्रॉस पेन की भेंट देकर, किसी बॉस की पत्नी को जापानी फ़्लावर वास अर्पित कर, और किसी महाप्रबन्धक के बच्चे को मुफ़्त ट्यूशन पढ़ा कर छलांग लीं और आज सहायक उपमहाप्रबन्धक की नर्म कुर्सी को गर्म कर रहे हैं।

किताब-विताब से हमको पहले भी लगाव नहीं था, इम्तहान पास करने के बाद तो हमने उन्हें एकदम अलविदा ही कह दी। पुस्तकों में आँख फोड़ने की बजाय हमने समय का सदुपयोग करना शुरू कर दिया। यही वजह है कि आज हर कोई हमारे नॉलेज का लोहा मानता है, हमारा उदाहरण देता है। हमारी घरवाली, बबीता, और दोनों लड़के, बट्टू और घट्टू, भी समझदार हैं, पर हमारे जितने नहीं। लेकिन सोचिए, अगर दुनिया के सारे समझदार हमारे ही घर में समा जाएँगे, तो चन्द्रयान कौन उड़ाएगा? हमारे पास तो उतनी फ़ुर्सत है नहीं। 

पहले हमको सोशल मीडिया के बारे में जानकारी नहीं थी। एकदिन बबीता की बहन कवीता मोबाइल फ़ोन दिखा कर बोली, "जीजाजी, यूनेस्को ने ’जन गण मन’ को सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान और हमारे प्रधानमन्त्री को सबसे अच्छा प्रधानमन्त्री घोषित किया है।" हम चौंके ज़रूर, पर साली के सामने हार कैसे मानते? ऐसा जताया जैसे वह बात हमें पहले से ही पता हो। कवीता की छोटी बहन, सवीता, भी कहाँ पीछे रहने वाली थी! हम पर लगभग गिरती हुई बोली, "और यह देखिए! यूनेस्को ने 2000 रुपये के नोट को दुनिया की सबसे अच्छी करेंसी माना है। और मालूम है, उसमें माइक्रोचिप भी लगा है!" हम एक हाथ से उसे और दूसरे हाथ से उसका मोबाइल फ़ोन सम्भालने की कोशिश कर ही रहे थे कि बबीता पैर पटक-पटक कर चिंघाड़ने लगी, "मधुमक्खी की तरह चिपक-चिपक कर बैठना ज़रूरी है? आपलोग दूर नहीं रह सकते?" हंगामा हो गया। उधर बबीता ज्वालामुखी की तरह लावा बरसा रही थी और इधर कवीता-सवीता की आँखों में चक्रवाती तूफ़ान के बादल घुमड़ रहे थे। हमने बड़ी मुश्क़िल से सबको मनाया, और सोशल मीडिया में अधिक रुचि लेने की ठान ली।

दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचते ही हमने बीवी की डाँट की बात दबा कर बाक़ी सभी बातें बड़े साहब को बता दीं। उन्होंने बात अपने बॉस को बताई, और आनन-फ़ानन में दोनों ने मिल कर प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री, और उद्योगमन्त्री को उपक्रम के लेटरहेड पर बधाई सन्देश भेज दिया। हाँलाकि ख़बरों से उद्योग मन्त्रालय का कोई लेनादेना नहीं था, लेकिन हमारा उपक्रम उसी मन्त्रालय के अन्तर्गत है। दूसरे देवताओं को पूजते समय हम कुल देवता को कैसे भूल सकते थे!  

कुछ ही दिनों में हम ढेर सारे सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स के सदस्य बन गए। अँगूठे से मैसेज लिखना भी सीख लिया। सच कहते हैं, सत्रह साल की पढ़ाई में जितना नहीं जान पाए थे, उतना, बल्कि उससे भी ज़्यादा, तो इंटरनेट यूनिवर्सिटी ने एक साल में ही सिखा दिया। अब हाल यह है कि हम सुबह उठते ही सबसे पहले फ़ोन पर मैसेज देखते हैं, सोने से पहले भी फ़ोन का ही मुखड़ा ताकते हैं, और रात में पेशाब के लिए उठने पर भी फ़ोन देखना नहीं भूलते। वैसे हम सभी मैसेज पूरे नहीं पढ़ते, बस आगे फ़ॉरवर्ड कर दिया करते हैं। अब हम नहीं पढ़ पाए तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि बाक़ी लोग भी ज़रूरी जानकारी से अनभिज्ञ रह जाएँ?

लेकिन दो महीने से हम अपने एक ब्रिलियंट शुभेच्छु की हर पोस्ट पढ़ रहे हैं। गुप्ताजी ऐसे विलक्षण डॉक्टर हैं जिन्होंने न तो मेडिकल की पढ़ाई की है, न पी एच डी की थीसिस जमा की है, और न ही किसी मान्यताप्राप्त विश्वविद्यालय से मानद उपाधि प्राप्त की है। उन्होंने ख़ुद कभी नौकरी नहीं की, लेकिन दूसरों को नौकरी में सफलता के बड़े-बड़े गुर सिखाने में महारत रखते हैं। वे अपने और अपने निकट सम्बन्धियों तथा बन्धुओं के कई बिज़नेस प्रोजेक्ट्स में आदि से अन्त तक संलग्न रहे हैं, और उनके नेस्तनाबूद होने के कारणों का व्यापक विश्लेषण कर सकते हैं। इतना होशियार होने के बावजूद घमण्ड तो उन्हें जैसे छू भी नहीं गया! बेचारे सबकी मदद के लिए बिन बुलाए ही तत्पर रहते हैं। हमें भी कई बार समझा चुके हैं कि औने-पौने में घर बेच कर किसी अच्छी जगह जा बसने में ही हमारी भलाई है, पर उनकी बात बबीता के गले ही नहीं उतरती। हम तो सोचते हैं कि अगर वे हमें हमारी शादी से पहले, बल्कि हमारे बचपन में ही, मिल गए होते तो हम भी अपने नाम के आगे कई डिग्रियाँ लिख पाते - न किताबों में घोंटा लगाना पड़ता, न मास्टरों का सोटा खाना पड़ता, और न ही गुरुजनों को कलेजी-मिठाई का दोना पहुँचाना पड़ता!  

दो महीने से उनकी पोस्ट रोज़ आ रही है। कोई भी पोस्ट तीन पंक्तियों से ज़्यादा लम्बी नहीं होती, पर होती सारगर्भित है। आदमी सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कहा क्या जा रहा है। मसलन, एक अंग्रेज़ी पोस्ट में लिखा था "Friends a advise issued by a group of Doctors to fight COVID-19, Let us fight it together." जीरा-पानी सेवन में स्पष्टता के लिए एक पोस्ट बयान कर रही थी, "How to consumer?" एक पोस्ट में "Panta Bhaar" के गुणगान के साथ दावा किया गया था कि वह खाद्य पदार्थ "Gastec" से सम्बन्धित है। हम काफ़ी देर हैरान होते रहे थे कि गैसटेक कार्पोरेशन खाने का सामान कब से बनाने लगी लेकिन अन्त में पता चला था कि गुप्ताजी दरअसल "पंता भात" और "गैस्ट्रिक" का ज़िक्र कर रहे थे। उनकी हर पोस्ट के साथ कोई-न-कोई अटैचमेन्ट होता है जिसमें कोविड को परास्त करने का अचूक नुस्ख़ा विस्तृत होता है। बताइए! जिस बीमारी का इलाज दुनियाभर के वैज्ञानिक और शोधकर्ता नहीं खोज पा रहे, उसका सिम्पल निदान विशालहृदय गुप्ताजी हमें फोकट में ही दे रहे हैं। पोस्ट बार-बार पढ़ने के बाद जब विश्वास हो जाता है कि हम गुप्ताजी का आशय समझ गए हैं, तो हम अपने शब्दों में वही जानकारी बबीता, बट्टू और घट्टू को देते हैं। लॉकडाउन न होता, तो सवीता, कवीता और ऑफ़िस की भवतारिणी को भी गहराई से समझाते, पर मन मसोस कर फ़ोन पर ही बतिया लेते हैं उनसे। 

गुप्ताजी ने अपनी पहली ही पोस्ट में कोविड से बचने का आसान व रामबाण तरीक़ा सुझाया तो हमारी जान-में-जान आई। इधर हम जान जाने के डर से भीगे ख़रगोश की तरह दुबके बैठे थे, और उधर गुप्ताजी ने आश्वस्त कर दिया कि भय की कोई बात ही नहीं। दोनों कल्लों में लहसुन की एक-एक कली दबाए शेर की तरह घूमो-फिरो, कोविड तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। वाह! हमने धुला, इस्त्री किया, कुर्ता-पाजामा पहना, दोनों गालों में लहसुन ठूँसे, एक एक्स्ट्रा लहसुन जेब में रखा, और बबीता को "आधे घण्टे में आते हैं!" कह कर सड़क पर निकल पड़े। दो मिनट भी नहीं बीते होंगे कि एक सिपाही ने डण्डा हिलाते हुए रोका, "कहाँ जा रहे हैं?" 

हम सकपकाते हुए बोले, "पीठ अकड़ रही थी, सो थोड़ी चहलकदमी करने के लिए निकल पड़े।"

"चहलकदमी करनी है तो अपने घर की छत पर करो। और मास्क कहाँ है तुम्हारा?" सिपाही ’आप’ से ’तुम’ पर उतर आया।

"मास्क की ज़रूरत नहीं है, ये देखिए, लहसुन दबाए हैं न मुँह में!" हमने सफ़ाई पेश करते हुए सबूत के तौर पर मुँह से हथेली पर लहसुन उगल कर दिखाया।

सिपाही को ग़ुस्सा आ गया। डण्डा पटकते हुए बोला, "अबे तू पिये हुए है या खिसका हुआ है? वापस पलटता है कि उतारूँ आरती? भाग!"

उस अनपढ़-उजड्ड के मुँह कौन लगता, हम तेज़-तेज़ कदमों से वापस घर हो लिए।

"अरे, आधे घण्टे की कह के गए थे, और दो मिनट में ही आ गए?" बबीता ने पूछा।

"पर्स भूल गए थे," हमारे मुँह से निकल गया। 

पता नहीं, उस दिन वह उतनी आज्ञाकारी क्यों बनना चाहती थी। पर्स हाथ में देते हुए बोली, "अच्छा हुआ कि वापस आ गए। इस बार थोड़ी सब्ज़ी भी लेते आना।"

हमें विश्वास था कि बाहर जाते ही सिपाही फिर दबोच ही नहीं लेगा, बल्कि सरकारी ख़ातिर भी कर देगा। सो, अनमने से बोले, "नहीं, मूड का कचरा हो गया। रहने दो, बाद में जाएँगे।"

बबीता ने बुरा-सा मुँह बनाया, और "हाँ, तुम काहे को काम करोगे? हम बैठे हैं न तुम्हारी जन्म-जन्म की दासी घर-बाहर सम्भालने को  ... " बड़बड़ाती हुए चली गई। 
एक तो सिपाही से अपमान, फिर बीवी से बेइज़्ज़ती - हमारा सिर भन्ना गया और मुँह का स्वाद कसैला हो गया। 
     
"अब ऐसा मुँह क्यों बनाए हो? कब तक पान की तरह लहसुन चबाओगे? उगलो और कुल्ला कर लो, नहीं तो मुँह-गला सब जलने लगेगा।" बबीता ने कहा। 

सच, पाँच बार कुल्ला किया तब पता चला कि हमारा सिर बेइज़्ज़ती से नहीं, लहसुन की वजह से भन्ना रहा था। नौकरीपेशा लोगों का सिर तो अपमान सहने के लिए ट्यून्ड होता है, हमारा विश्वास और प्रबल हो गया।

ख़ैर! अगले दिन गुप्ताजी ने सन्देश भेजा, "कोविड से बचाव का एकमात्र तरीक़ा है गर्म पानी और हल्दी का सेवन।"

तरीक़ा आसान था। हमने बबीता, बट्टू और घट्टू को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि किसी को ठण्डा पानी पीते देखा तो उसकी ख़ैर नहीं। हर बार गर्म पानी के साथ आधा चम्मच हल्दी पाउडर निगलने की हिदायत भी दे दी। दो घण्टे में ही घर मसाला चक्की जैसा महकने लगा, वॉशबेसिन गंदला हो गया, और हम सब पीलिया रोगी जैसे दिखने लगे। उस दिन लन्च में फीकी सब्ज़ी परोसते हुए बबीता ने ऐलान किया, "सारी हल्दी ख़त्म हो गई। अब जब तक बाज़ार से हल्दी नहीं आ जाती, ऐसा-ही खाना खाना पड़ेगा।" खाना खाते ही मन मार कर बाज़ार गए और पिसी हल्दी के पाँच पैकेट ख़रीद लाए। क्या करें, हल्दी के बिना सब्ज़ी हमें ऐसी लगती है जैसे बप्पी लाहिरी स्वर्णाभूषणों के बग़ैर ही "ऊ लाला ऊ लाला" की तान छेड़ रहे हों।

तीसरे दिन हम लहसुन, गर्म पानी, और हल्दी से लैस होने की तैयारी कर ही रहे थे कि गुप्ताजी ने हमारे ज्ञान चक्षु खोल दिए। फ़्रिज और माइक्रोवेव की सफ़ाई ही कोविड के विरुद्ध ढाल का काम देती है, बाक़ी सब फ़िज़ूल है - आज उनका कहना था। हम उत्साह से फ़्रिज से बैंगन-दूध-अण्डे वगैरह निकाल ही रहे थे, कि बबीता हल्दी-पानी लेकर हाज़िर हो गई। 

"हाय दैया, ये क्या कर रहे हो?" वह इतने अप्रत्याशित ढंग से चिल्लाई, कि घबराहट में हमारे हाथ से दूध का भगौना छूट कर अण्डों के ऊपर जा गिरा। घट्टू दौड़ता हुआ पहुँच गया, और हिला-हिलाकर फूटे और साबुत बचे अण्डों की जाँच करने लगा। उधर बबीता के हाथ की हल्दी फ़्रिज पर जगह-जगह लिसड़ गई। तीन घण्टा रगड़-रगड़ कर साफ़ करने के बावजूद फ़्रिज पहले से ज़्यादा गन्दा दिखता रहा। अण्डे की महक ने अलग परेशान कर दिया। माइक्रोवेव फिर किसी दिन साफ़ करेंगे, सोच कर हमने उस दिन काम से पनाह माँग ली। 

इन असुविधाओं के बावजूद, हम गुप्ताजी की सलाह पर कभी अदरक, कभी सहजन, कभी बीज, कभी फल खाकर और कभी उपवास रख कर अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते रहे हैं। यह सच है कि कोविड की इस विशेष तैयारी की वजह से हमारा घर ख़र्च बढ़ गया है, लेकिन अच्छे स्वास्थ्य के आगे रुपये-पैसे की क्या बिसात है! जान रही, तो फिर कमा लेंगे। हमारी तैयारी ने बबीता को चिड़चिड़ा बना दिया है, पर उसकी भी हमें आज सुबह तक कुछ ख़ास परवाह नहीं थी। लेकिन आज दोपहर मामला तब हाथ से बाहर हो गया जब उसने हमें डाइनिंग टेबल पर नहीं, ज़मीन पर पालथी मार कर भोजन ग्रहण करने को कहा। इधर हम दरी पर बैठे उत्सुकता से निहारते रहे, और उधर बबीता ने सिर पर साड़ी का पल्लू रख कर हमारे सामने पत्तल धर दी। उसने धीरे से अख़बार का पुलिन्दा खोला और उससे हरा-हरा गोबर पत्तल पर उलट दिया। मिट्टी का कुल्हड़ सामने रखा, और धीरे-से बोली, "गोमूत्र है!"

हम अवाक रह गए - "यह क्या है? गुप्ताजी ने ऐसा तो नहीं कहा है।"

वह बोली, "नहीं! पर अब हम भी इंटरनेट पर एक ग्रुप के मेम्बर हो गए हैं। वहाँ बाबाजी ने कोविड से बचने के लिए इनके सेवन और "कोविड जा, कोविड जा" मन्त्र का रोज़ हज़ार बार पाठ करने को कहा है। जल्दी शुरू कीजिए, फिर पूजा भी तो करनी है न!"

दरवाज़े के पीछे छुपे बट्टू-घट्टू हमें ताक रहे थे। हम गोबर मुँह तक लाए, फिर बोल पड़े, "कमाल करती हो! इंटरनेट पर कोई कुछ भी कहेगा तो सच मान लोगी?"

वह भोलेपन से बोली, "क्यों, नहीं मानना चाहिए?"

हम गुर्रा कर बोले, "हर्ग़िज़ नहीं।"

"तो गुप्ताजी की हर बात क्यों मान लेते हो आँख मूँद कर? ख़ुद अपने दिमाग़ से कोविड की तैयारी नहीं कर सकते?" उसने पूछा।

हमने पत्तल परे सरकाई और उसकी आँखों में झाँका। वैसे तो घर में हम ही सबसे ज़्यादा बुद्धिमान हैं, लेकिन आज वह हमसे ज़्यादा अक़्लमन्द लग रही थी। 
अब हमने गुप्ताजी को ’ब्लॉक’ कर दिया है। हमारी मानें, तो आप सब भी अपने-अपने ’गुप्ताजी’ को ’ब्लॉक’ कर दीजिए। सुख से रहेंगे।

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