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कभी तो मानते

(एक कविता दो भाग )

 

1.


मेरे अर्द्धांग!
मेरे हम सफ़र!
तुम सुन रहे हो न तुम!
ज़िम्मेदारियों से भागने की
अपने हित जीने की चाह ने
तुम्हें तुम्हारा आपा दिखाया होगा
तुम्हारे पतझड़ी एकांत पलों में
तुम्हारी मन धरा पर अँकुरने लगीं  होंगी
तुम्हारे छल बल की आकृतियाँ
जागी होंगी सुप्त प्रेम की मधुर स्मृतियाँ
फिर हरी-भरी हो कर मिलन की चाह लिये
जा कर दूर हुआ होगा एहसास
तुम्हें अपने अकेलेपन का
अपने किये का पश्चाताप भी
जो तुम्हें सकून से जीने नहीं देगा
मैं जानती थी -तुम आओगे।
तुम्हें लगता है कि -
तेरे हाथों पैरों के प्रहार से
मुझे अँधाधुँध मारना,
परताड़ना और लगाना लांछना
मेरी रूह और शरीर को छलनी कर देगा
मैं देह त्याग दूँगी
तुम्हें छोड़ दूँगी, नहीं!
नारी घर तोड़ती नहीं, जोड़ती है,
तुम, अपने से ही भाग रहे हो,
मुझ से नहीं
सदा से यही करते आये हो
कभी बुद्ध बन, कभी राम बन
कभी दुष्यन्त बन त्यागा अपनी शकुन्तला को
छल से त्यागा दमयन्ती को
और नारी नहीं त्याग पाई तुझे
उसे तो जन्म जन्मान्तरों तक
तुम्हारे साथ बाँधा है प्रकृति तन्त्र ने
अर्द्धांग जो है वह तुम्हारा
सृष्टि रचना को बढ़ाने हित
बनाया हमें निमित्त था
कर्मठता को त्याग
जीवन से भागने का
कायरता का पाठ तुमने
कहाँ से सीख लिया?
क्या तुम अपनी नज़रों में
आप ही नहीं गिर जाते
जब आते हो लौट कर मेरे पास?

 

2.


मेरे अर्द्धांग!
मेरे हम सफ़र!
क्या क्या गिनाऊँ ?
हर एक जन्म में तुमने
अपने नाना रूप दिखाये हैं।
हर जन्म के चिह्न लिये जीती रही
हूँ आज तक
सैकड़ों जन्म ले लेकर नहीं भूली कुछ
अपना समर्पण और तुम्हारा छलना
अहं के नशे में चूर होकर
क्रोध से छलकते रक्त नेत्रों के साथ
संध्या को घर लौटना
आमानुषिक व्यवहार करना
मन की भड़ास निकालने का साधन
सिर्फ़ मैं ही तो होती हूँ एक नारी देह
झेल गई तन पर दिये निशानों को
लगाये झूठे इल्ज़ामों को
तुम्हारी अर्द्ध मूर्छा की तकनी का सवाल
तुम्हारे बिन कहे ही जान जाती हूँ।
‘क्या अब भी मेरे साथ रहोगी?
चली क्यों नहीं जाती छोड़ कर?’
उत्तर के बदले मन में प्रश्न उठते रहे
क्या मिला अपनी भ्रमर वृत्ति से?
छोड़कर पुन: लौट आते हो यहीं न।
सच्चा प्यार कहीं मिला क्या?
जो जिसके लिये है बना
पायोगे उससे ही वह प्यार
अपनी मंज़िल से भटकना
क्यों भाता है तुम्हें ?
अब तो हद ही हो गई
करने लगे आत्महत्या
क्या बुद्धि घास चरने चली गई?
जो नशे से दोस्ती कर ली
यह जीवन तो एक बार मिलता है
ठुकराना क्यों भाया तुम्हें?
क्या मुक्त हो पाओगे?
जब तक यह अर्द्धांग जीवित है
तुम्हारे आधे हिस्से की हर पीड़ा
इसे ही झेलनी होगी।
पग पग पर एहसानों तले दब कर
भूखे प्यासे बच्चों को लेकर
जीना होगा दर-दर ठोकरें खा कर
तुम सहन कर पाओगे क्या?
भटकोगे लिये कंधों पर अर्द्ध मुक्ति
एक अशरीरी प्रेत छाया
कभी तो सह धर्मिणी को हृदय से अपनाया होता
मुश्किलों को साझा किया होता
दोनों मिल कर हर मुश्किल का हल ढूँढ़ते
जीवन लीला समाप्त कर चल दिये
महा पाप के भागी बन
देकर ये यातनायें।
क्यों?आख़िर क्यों ?
दु:ख सुख की धूप छाँव में
असफलता के आँधी तूफ़ानों में
मिल कर जीने को बने थे हम तो साथी
अपने अहं को त्याग
कभी तो मानते
कि ’तुम्हारे बिन अधूरा हूँ मैं’
जीवन संकटों के इन तूफ़ानों से
तुम देखते फिर हम कैसे गुज़र जाते
मेरे अर्द्धांग, मेरे हम सफ़र!
नये सफ़र पर नई उम्मीदों के साथ।

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