मज़दूर
काव्य साहित्य | कविता सुनील चौधरी1 Jun 2019
साहूकार के आगे मत्था टेके,
सरकार के आगे जो हाथ फैलाए,
दर्द है जिनका बना नासूर,
मानुष उनको कह देते हैं -
मज़दूर।
बोझा ढोता,रिक्शे खींचता,
चिमनियों की कालिख माँजता,
ईंटों को चिनता रहता,
रह जाते जो घर से दूर,
मानुष उनको कह देते हैं-
मज़दूर।
जिन्होंने अपने हाथ गवाएँ,
मंदिर,मस्जिद जिन्होंने बनाए,
विश्व इमारतें जिनके सीने पर तन पाएँ,
वे ही दिखते हैं बेबस और मजबूर,
मानुष उनको कह देते हैं-
मज़दूर।
देश-देश जो बिकते रहे हों,
जो क्रांति के दौर में दौड़ पड़े हों,
आज आसमान तले ही सो जाते हैं,
पाकर अपनों का व्यवहार क्रूर,
मानुष उनको कह देते हैं -
मज़दूर।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
कहानी
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं