अपनों को क्यों भूल गए
काव्य साहित्य | कविता सुनील चौधरी1 Mar 2019
सोचा था
हा सोचा था
कुछ बड़ा करूँगा
माँ-बाप का नाम करूँगा
नाम तो होगा भी मेरा
ठाठ-बाठ से ब्याह करूँगा
लेकिन यह क्या?
मित्र चलते-चलते झूल गए तुम
फाँसी का ही फंदा सूझा
अपनों को क्यूँ भूल गए तुम?
ख़्वाबों की दुनिया क्यों
इतनी बड़ी बनाई?
एक तरफ़ है कुआँ खोदा
दूजी तरफ़ थी खाई
नौकरी की भाग दौड़ में
जीवन जीना भूल गए तुम।
फाँसी का ही फंदा सूझा
अपनों को क्यूँ भूल गए तुम?
अगर नौकरी ना पाते तो
कौन ग़ज़ब है हो जाता?
हाथ-पैर की मेहनत से
घर भी धन से भर जाता
ख़्वाबों को पूरा करते-करते
स्वयं से ही हार गए तुम
फाँसी का ही फंदा सूझा
अपनों को क्यूँ भूल गए तुम?
माँ से तो कह सकते थे-
माँ मेरे अब बस की नहीं
बापू भी कह ही देते-
कर लो बेटा मन कही
अंतर्मन में डूब डूबकर
आज आख़िर डूब गए तुम
फाँसी का ही फंदा सूझा
अपनों को क्यूँ भूल गए तुम?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
कहानी
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं