कंडे, आग और धुआँ
काव्य साहित्य | कविता सुनील चौधरी1 Oct 2020 (अंक: 166, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
कंडे थापती स्त्रियाँ
घेर सकती हैं
तुम्हारी ज़मीन को
तुम्हारे क़ानूनों को
वे
थाप सकती हैं गोल-गोल कंडे
तुम्हारी संसद पर
तुम्हारे वेतन भत्ते पर
वे
परात में भरकर किसान विरोधी बिलों से
बना सकती हैं बिटोरे
लीप सकती हैं गोबर से
वे
प्रत्येक समय में घटित स्थिति से
तुमसे निपट सकती हैं
धुआँ उन्हें पसंद है
लेकिन
अभी वे चूल्हे में
आग सुलगाने में मस्त हैं
उन्हें इसी तरह रहने दो।
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