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मेरे शब्द

मेरे शब्द न जाने कहाँ खो गए
रात की निस्तब्धता में
भीड़ के कोलाहल में,
भाव तुम तो मेरे थे –
तुम क्यों पराये हो गए?


अब तो चीत्कार भी
दीवार से टकरा कर लौटती नहीं,
किसी की भी कोई पुकार,
मुझे खोजती नहीं,
एक अनजाना सा शून्य है हर दिशा में
ऐसे पराये देश में – 
तुम क्यों पराये हो गए?

 

बोल अधरों पर अटक गए
भाव मेरे भटक गए
क्यों मेरे अर्थ कोई समझता नहीं है
अर्थहीन – मैं तो पहले से ही था
तुम भी क्यों अर्थहीन हो गए?


अब क्यों नहीं है तुमसे कोई आस मुझे
क्यों होता है वसन्त में
पतझड़ का आभास मुझे
क्यों अब रजनीगन्धा महकती नहीं है
क्यों अब कोई बुलबुल चहकती नहीं है
एक अजनबी सा 
गम्भीर सन्नाटा है हर तरफ़
इस अनजान देश में मुझे छोड़
तुम कहाँ खो गए?


आँसुओं से भीगा है बदन
मन पर छायी हुई एक उदासी है
क्यों मेरी आत्मा शब्दों की प्यासी है
उनकी पीठ पर न जाने कितनी
अपनी कुंठाएँ ढो चुका हूँ मैं
हँसी तो कब की भूल चुका था
कितने सागर रो चुका हूँ मैं
खो के तुम्हें बस
एक बुत सा बनकर रह गया मैं
मित्र आए... देखा.. 
और आ के रो गए

 

कुछ स्वरों का ही अस्तित्व मेरा था
कुछ भावों का ही मन में डेरा था
बनजारे से थे मेरे विचार –
कहाँ रुके कहीं वो देर तक
आज उठाया वितान और –
कहीं और के हो गए!

 

अब अपने को ही
अजनबी सा पाता हूँ स्वयं से
“सुमन” तुम क्यों अपने से ही
पराये हो गए ?
मेरे शब्द न जाने कहाँ खो गए?

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