अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

निमंत्रण

“मेरी छुट्टी मंज़ूर हो गई उषा जी! आपकी हुई कि नहीं? काफ़ी दिनों से मायके नहीं जा पाई थी, निमंत्रण मिलते ही आवेदन किया था। देखिए झटपट स्वीकृत हो गई," रंजना उत्साहित थी।

प्रत्युत्तर न मिलने से प्रश्न दुहराया। उषा जी के नयनों के कोर से जाने क्यों कुछ नमी सी झलक आई, “जी! मैं रक्षाबंधन में नहीं जा रही हूँ। अधिकतर शिक्षिकाएँ छुट्टी पर जा रही हैं, कुछ लोगों का यहाँ होना भी ज़रूरी है।”

“उषा जी! आपने भी ख़ूब कही! सिर्फ़ चार घंटे का रास्ता है आपके मायके का। एक दिन की छुट्टी लेने से काम चल जाता। यूँ तो हम मायके जाते ही रहते हैं, पर रक्षाबंधन में बात ही कुछ और होती है। माँ-भाभी के हाथों के पकवान, भाई का प्यार और उपहार, रिश्तेदारों की आवा-जाही। वाह भाई वाह! रौनक़ होती है। भाभी का मायका उसी शहर में है, मुझसे मिलकर वह मायके चली जाती हैं।

"मैं ही बड़बड़ाये जा रही हूँ, आप कुछ बोल ही नहीं रही हैं! कहीं मैं आपके निजी मामलों में दख़लअंदाज़ी तो नहीं कर रही?” रंजना ख़ामोश हो गई।

“ऐसा नहीं है रंजना जी! इस स्कूल में बारह सालों से हम साथ हैं, इंसान किसी के आगे अपना दिल खोलता ही है। हमने भी अपने सारे सुख दुख बाँटे हैं। आपको अच्छे मूड में देखा तो उदासी घोलने का मन नहीं हुआ। मैंने छुट्टी का आवेदन नहीं दिया था। मेरा रक्षाबंधन में मायके जाने का प्रोग्राम नहीं है।

"आपने पूछा है तो बताती हूँ। मेरे बच्चे बढ़ती उम्र के साथ अब समझदार हो गए हैं। वहाँ मेरे और दीदी के बीच किए गए भेदभाव को समझने लगे हैं। दीदी बड़े व्यवसायी की पत्नी हैं, उनके परिवार को विशिष्ट आवभगत मिलती है। मैं और मेरे पति शिक्षक हैं, पहुँचते ही रसोई में धकेल दी जाती हूँ। रसोई ही मायका बन जाता है।

"शिकायत नहीं करती; यूँ तो वर्ष भर जाने कितनी बार आना-जाना लगा रहता है। दीदी से भी मुलाक़ातें होती हैं, पर कुछ वर्षों से रक्षाबंधन पर हम दोनों बहनें बारी-बारी जा पाती हैं," स्वर में दर्द प्रतिध्वनित हुआ।

रंजना विचारों में डूब गई, ’क्या धनाभाव माँ-बाप के प्यार में अंतर ला सकता है? सारे नहीं, पर कुछ माँ-बाप अपवाद स्वरूप अवश्य ऐसे होते होंगे, तभी तो ऐसी कहानियाँ जन्म लेती हैं।’

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/08/15 09:12 PM

जीवन की विविधतापूर्ण अभिव्यक्ति

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं