अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नाहक़

 

दसवीं क्लास की छात्रा नमिता, सहेली कृष्णा के हाव-भाव से कुछ भाँपने के प्रयास में थी पर कृष्णा के निर्विकार चेहरे से कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। उसने पूछ ही लिया, “आज समाचारपत्र में मशहूर उद्योगपति सेठ जगनलाल के देहावसान की दुखद ख़बर थी और तुम स्कूल चली आई हो! क्यों?” 

“मृत्यु पश्चात कर्म उनके आवास पर स्वजनों के समक्ष होंगे। सेठ जी के यहाँ जाने पर उनके अंतिम दर्शनों की इजाज़त भी नहीं मिली हमें। सख़्त लहजे में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप, माँ का विलाप मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो स्कूल चली आई,” दर्द छलक आया। 

“तुम्हारी माँ सेठ जी की दूसरी पत्नी हैं, यह शहर भर को ख़बर है। फिर समस्या क्यों हुई?” 

“उनकी नज़रों में मेरी ग़रीब माँ, उपपत्नी के चोले में उनके अमीर बुज़ुर्गवार पति के शौक़ पूर्ति का ज़रिया मात्र हैं, जिन्हें पैसे, कपड़े-लत्ते के साथ शहर से बाहर छोटा सा घर दे दिया गया था।” 

“तुमने इन बातों का कभी ज़िक्र नहीं किया!” नमिता हैरान थी। 

“बताने लायक़ था क्या? छोटी थी तो उनसे चॉकलेट वग़ैरह ले लिया करती थी। बड़े होने पर उनके आते ही सहमकर कमरे में समा जाती। ‘पापा’ कहते उनकी आँखों में रोष सा तैर जाता, तो उन्हें ‘सर’ कहना प्रारंभ किया। उनकी ओर से कभी कोई बदसुलूकी नहीं हुई। पर ऐसी कोई याद भी नहीं, जो रुला जाए। वे हमारे आर्थिक एवं सामाजिक सहारा अवश्य थे,” कृष्णा के डूबते से स्वर निकले। 

“तभी पिता के रूप में कभी उन्हें याद करते नहीं देखा तुम्हें,” नमिता ने कहा। 

“सेठ जी मेरे पिता नहीं, महज़ जैविक पिता थे। उन्हें पापा कहकर पुकारने का हक़ नहीं मिला मुझे,” कृष्णा के स्वर भर्रा गए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं