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रीत

“क्या हुआ, दीये ले आए? सामने फुटपाथ पर मिट्टी के दीये बिकते देखा तो सोचा दीपावली से पहले ही मँगाकर रख लूँ। थके-थके से नज़र आ रहे हो, बाज़ार में गर्मी थी क्या?”

“नहीं-नहीं! कुछ और ही सोच रहा हूँ।”

“क्या हुआ? स्पष्ट बताओ!”

“यहाँ आने के बाद से हमारे दीये मनोहर कुम्हार की दुकान से ही आते रहे हैं।”

“हाँ! जानती हूँ।”

“आज जब मैं वहाँ गया तो मुझे मनोहर के स्थान पर एक वृद्धा और तीन छोटे बच्चे मिट्टी के दीये और खिलौनों की दुकान सजाए बैठे नज़र आये। एक बच्ची कुछ दीये हाथ में उठाकर प्यार से लेने का आग्रह करने लगी। मैंने कहा, ‘ले जाऊँगा। फ़्लैट में कितने दीये जलाएँ, पच्चीस दे दो। तेल भी महँगा हो गया है।’

"मैंने वृद्धा से मनोहर के विषय में पूछा तो उसने बताया, ‘का है न साहेब! ई काम से लईकन-बुतरू और परिवार के परवस्ती न हो सकत है। दूनो गोटा मजूरी करे लगलन हे। चीन के झालर, दीया, सब सस्ता बिकत है। दीया जलावे खातिर तेल चाही, ओहू में आग लागल है। करोना के परेसानी अलग। पर हमार बिरादरी ई परंपरा के बचावे खातिर प्रयास करते रहे।’

’सिर्फ़ वृद्ध और बच्चे! इस कला को जीवित रखने के लिए युवाओं की आवश्यकता है,’ मेरे मुँह से अस्फुट स्वर निकले।

’कला से पेट कहाँ भरत है साहब? पेट रोटी माँगत है। लॉकडाऊन में एतना तंगी रहे कि मनोहर के अपन पुश्तैनी चाक बेचे परलक। अब ऊ दीया कहाँ से बनाई?’

‘ये दीपक कहाँ से आए?’ मैंने पूछा।

‘ई सब दीया दूरदराज के गाँव-देहात, दूसर प्रदेश से बन के आवेला। थोक में खरीद के फुटकर में बेचल जाला, जेहि कुछ आमदनी हो जाए,’ वृद्धा की आँखें छलक आईं।

"पच्चीस की जगह पचास दीये ले आया। कल अपार्टमेंट के उत्सव बैठक में सभी से घरों में बिजली के झालरों की जगह दीये जलाने का अनुरोध करूँगा, इससे ज़्यादा क्या करूँ?”

“क्या ऊपरी तबक़ा, क्या निचला, सबकी कुछ मजबूरियाँ हैं। तुम एक उभरते लेखक हो, पर साहित्य लेखन से पेट नहीं भरता, सोचकर हार्डवेयर की दुकान खोल रखी है," पत्नी बोली।

“परिवार के गुज़र-बसर के लिए समझौते किए जाते हैं, यही रीत है।”

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