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मंतव्य

 

“कल आपके घर में बड़ी भीड़-भाड़ थी?” पड़ोसन ने पूछा। 

“जी हाँ! कल मेरे मायके वाले मेरे भतीजे के लिए लड़की देखने गए थे। लौटते हुए महफ़िल यहीं जमी। पापा साथ नहीं गए थे, तभी उन्हें बताने के पहले हम एक पारिवारिक विमर्श चाहते थे।” 

“क्या फ़ैसला हुआ है? बस एक उत्सुकता है।” 

“फोटोशॉप की गई तस्वीरें आईं थीं, फ़ेसबुक पर वही हाल था। लड़की क़द-काठी और शिक्षा-नौकरी की लिहाज़ से अच्छी है। पर रंग-रूप में, उसमें और भतीजे में सत्रह-बीस का फ़र्क़ है। धर्मसंकट खड़ा हो गया है कि लड़की वालों को हाँ कहें या ना?” 

“लड़की के गुण भरपाई कर देंगे, भाभी जी!” पड़ोसन बोली। 

“मेरे नाना जी किसान थे। लट्ठमार अंदाज़ में कहते थे—शादी के बाज़ार में लड़की रूप बिना और लड़का गुण बिना बेकार,” कहते-कहते वह हठात्‌ थम गईं। 

“तब कहते होंगे जब लड़कियों का कार्यक्षेत्र घर-गृहस्थी, चौका-चूल्हा हुआ करता था। पर अब नहीं कहते। उन दिनों भी गुणों की क़द्र थी। मुझे देखिए, मेरा चेहरा चेचक के दागों से . . . ओऽहह! और मेरे पति इतने स्मार्ट-ख़ूबसूरत। मेरी मंगनी के कुछ दिनों बाद मुझे चेचक हो गया था। ये रिश्ते से मुकर सकते थे पर इन्होंने कहा—मैं पसंद ज़ाहिर कर चुका हूँ, शादी से पीछे हटने का सवाल ही नहीं पैदा होता। अगर शादी के बाद ऐसा हो जाता तो . . .?” 

“हमारे मोहल्ले में ऐसा एक भी शख़्स नहीं जो आपके रंग-रूप के बारे में कोई हल्की टिप्पणी करने की भी सोचे। आप हर दिल अज़ीज़ हैं। पाककला में तो आपकी कुशलता की मिसाल देते हैं हम।” 

“अभी आपने स्वयं स्वीकार किया न कि रूप पर गुण भारी होते हैं?” 

“मैं आपका मंतव्य समझ गई, भाभी जी! मेरा वोट लड़की के पक्ष में ही गिरेगा। आगे मायके वालों की जैसी मर्ज़ी . . .।” 

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