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मैं

 

मोहल्ले के सामुदायिक भवन में ‘होली मिलन’ समारोह में एकत्रित कुछ बुज़ुर्ग जोड़े, बड़ी मेज़ पर पड़े कुछ पकवान, गुलाल, सूखे मेवे और वही घिसा-पिटा बजता रिकॉर्ड, “बच्चे अपनी-अपनी दुनिया में मस्त-व्यस्त, हमारी परवाह नहीं है उन्हें।” 

सकारात्मक रवैए वाले कुछ बुज़ुर्ग बचाव करते, “छोड़ो भी! हम हैं न एक दूसरे का सहारा। साथ मिलकर मनाएँगे हर त्योहार।” 

महिलाएँ रोने-झींकने से कब बाज़ आने वाली थीं, “एक हमारा ज़माना था। पति और बच्चों के साथ चल पड़ते थे, बुज़ुर्गों के जीवन में पुआ-पकवान बनाकर रौनक़ भरने। आजकल बहू-बेटियों से उम्मीद रखना ही व्यर्थ है। उम्रजनित रोगों एवं घुटनों के दर्द के साथ रसोई में अधिक देर खड़ा नहीं रहा जाता। और बनाएँ भी तो किसके लिए?” उनके आँसू छलक आये। 

“अपने पति के लिए पकवान बनाइये,” मनमीत जी ने माहौल हलका करने का प्रयास किया पर स्वयं ग़मगीन हो गए, “हमारे ज़माने के सर्वोच्च अधिकारी भी बस शिक्षित पत्नी का सपना देखते थे, डबल इनकम का नहीं। पत्नी हमक़दम रहे, परिवार सँभाल ले, बहुत था। पर आजकल के लड़के और उनके माता-पिता भी समानुपातिक शैक्षिक स्तर की बहू चाहते हैं। उन लड़कियों को दफ़्तर के आठ घंटे की माथापच्ची के बाद घर का कामकाज, बच्चों का पालन-पोषण ही बोझ लगता होगा तो बुड्ढों की किच-किच कहाँ से झेलें, जो बढ़ती उम्र के स्वाभाविक लक्षण हैं। तो बच्चे आया के हवाले और बुड्ढे ‘डे-केयर’ के . . . ” 

“सपने देखने में यूँ तो कोई बुराई नहीं है, पर उनके पीछे भागता युवा ‘मैं’ बन कर रह गया है। ‘हम’ अर्थात्‌ पारिवारिक नहीं बन पाता। जो ‘हम’ बनना चाहता है, अपने जीवनसाथी को नाराज़ कर बैठता है। बहुतेरे वैवाहिक संबंधों तथा पारिवारिक संबंधों के दरकते जाने का एक कारण यह भी है,” एक स्वर उभरा। 

“सच है! पर सामाजिक परिवर्तन से ही देश की तरक़्क़ी का रास्ता बनता है,” कहकर मुस्कुराते मनमीत जी ने सबके गालों पर गुलाल मलकर ‘हैप्पी होली’ बोलना शुरू कर दिया। बुज़ुर्गों के चेहरों पर स्वीकारात्मक मुस्कुराहट खेल गई। 

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