अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उलट

 

“दादी! भैया के ब्याह के लिए लड़की तलाशने में रूप, गुण, शिक्षा, स्वजातीय, संस्कारी परिवार की बातें होती थीं। जोड़ी परिपूर्ण दिखे, उसके भी मायने थे। पर मेरी शादी की आई तो वही मापदंड उल्टे कैसे हो गए? अब चाहिए स्वजातीय लड़का, नौकरी या व्यवसाय में व्यवस्थित, शहर में बढ़िया मकान, पुश्तैनी सम्पत्ति, परिवारिक रुत्बा। सबसे अंत में रूप की बात! हुँऽऽऽ! क्या लड़कियाँ नहीं चाहती हैं कि उनकी भी जोड़ी फबे? दादी, बताओ ना!” 

“बेटा! ख़ूबसूरत दुलहन लाने के साथ परिवार के अगली पीढ़ी की ख़ूबसूरती की गारंटी समझी जाती है! गारंटी चले ना चले, वह एक अलग मुद्दा है। पर आम मानसिकता यही है, ‘दामाद सुदर्शन और स्मार्ट मिला तो बढ़िया, न मिला तो समझौता करने को तत्पर।’ क्योंकि लड़की तो दूसरे परिवार की हो जाती है। कहावत का सहारा भी है, ‘घी के लड्डू टेढ़ो भला!’

“रही बात धन सम्पत्ति की, तो बेटियों के लिए ऐसा घर वर ढूँढ़ा जाता है कि विवाहोपरांत मायके से उन्हें आर्थिक मदद की ज़रूरत न पड़े। तभी धनी लड़का समाज में हाथों-हाथ लिया जाता है।” 

“पर दादी, पैतृक सम्पत्ति पर लड़का और लड़की का बराबर अधिकार होता है। फिर लड़के के पैसों से हमें क्या लेना-देना?” 

“यहाँ कथनी और करनी में अंतर है। कुछेक राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में बेटे के लिए सम्पत्ति का पहाड़ भले खड़े कर लें पर बेटी को शादी के वक़्त ले-देकर सदा के लिए आर्थिक ज़िम्मेदारियों से निवृत्त होना चाहते हैं, जिसे अमूमन दहेज़ का नाम दिया जाता है। यानी पैतृक सम्पत्ति में ठेंगा, और कन्या धन के साथ तथाकथित दहेज़ भी न देना पड़े तो दोनों हाथों में लड्डू। दरअसल लड़कों में परिवार का भविष्य दिखता है, पर शादीशुदा लड़कियों पर अधिकार जताना मुश्किल होता है।” 

“दादी! मैं एक आत्मनिर्भर लड़की हूँ। रिश्ते के लिए मैं अपनों के अनर्गल दवाब में नहीं आने वाली।” 

“मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, बेटा!” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं