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जोखिम

 

“यह कौन है, माँ?” 

“पगलिया बोले हैं लोग इसे! पड़ोसी रामदीन की मंदबुद्धि, करीट्ठी, बिन ब्याही तीसरी छोरी है ये। दिन भर गाँव के आवारा छोकरों के साथ गाँव की गलियों में मँडराती फिरती है। अभी ही शकल देख ले इसकी, भरी बरसात में कीचड़ मिट्टी में सनी, बिल्कुल भूतनी लागे है। तेरे लाल को भी उसी में लपेट रखा है।” 

“पर तुमने ध्यान दिया न कि अपनी माँ को खोने के बाद गुमसुम सा रहने वाला तेरा पोता, गाँव आने के बाद से उसी की परछाईं बना फिर रहा है! ख़ुश भी है। कोई तार सा जुड़ गया है, दोनों में।” 

“ख़ुद भी बनच्चर है, इसे भी बना देगी।” 

“मेरा एक काम करोगी, माँ? इसके पिता से मेरे लिए इसका हाथ माँगो!” बात अनसुनी करते हुए उसने कहा। 

“क्या हुआ है तुझे! बढ़ती उम्र की मंदबुद्धि लड़की तुझे ब्याहने लायक़ लग लग रही है?” 

“माँ! यह लड़की शायद अब तक अनब्याही इसीलिए हो कि मेरे बिन माँ के बेटे को प्यार दे सके।” 

“बेटा! ख़ुद की बुद्धि ठीक नहीं है, क्या ख़ाक करेगी?” 

“माँ! पूरे हफ़्ते से उस पर नज़र रखे हूँ। परिपक्वता औसत से कम है, घरवालों की अज्ञानता भी कारण हो सकती है। पर पूर्णतः मंदबुद्धि भी नहीं कह सकते। मैं इसका इलाज करा लूँगा। शहर में अच्छे मानसिक अस्पताल हैं। निराश मेरे मन को छल-कपट से दूर इस लड़की में तेरे पोते की ख़ुशियाँ दिखी हैं। 

“इसके स्वस्थ होने तक सबका ध्यान रखने संग शहर चल, माँ! एक प्रशिक्षित स्टाफ़ की नियुक्ति भी कर लेंगे। पर इसके पिता तैयार तो हों?” 

“वह सर के बल तैयार हो जाएगा, सोचेगा बला टली,” माँ मुस्कुरा रही थीं पर पोते के लिए जोखिम उठाने को मन राज़ी भी न था। 

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