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रेशमा आ गई

रेशमा ने घर की दहलीज़ पर क़दम बढ़ाते हुए चारों-ओर नज़र दौड़ाई, एक ख़ामोश वातावरण, खालीपन के साथ चारों-ओर चुप्पी नज़र आई। उसे याद आया कभी यहाँ इंसानों की चहल-क़दमी, हँसी के ठहाकों के साथ मेहमानों व पड़ोसियों का मेला सा लगा रहता था और आज... सब चुप है, कहाँ गईं वो आवाज़ें, वो हँसी के ठहाके, लोगों का जमघट? सब कुछ बदल गया, गुज़रे पाँच बरसों में, उसकी ग़ैरहाज़री में। वह सोचने लगी क्या वह तो नहीं, इस बदलाव के पीछे?

मकान की दीवारें बेरंग, गन्दी और मटमैली सी दिखाई पड़ रही थीं, उसने मकान की दीवार के पास जाकर, अपने हाथों से दीवार को छुआ, अँगुलियों पर कलकर के हल्के धब्बे उभर आए। वह बोल पड़ी, "कभी इन दीवारों पर चमचमाता रंगबिरंगा कलर तथा सुन्दर-सुन्दर लटके हुए, चिपके हुए पोस्टर हुआ करते थे और आज ये दीवार बेरंग..."

उसकी नज़रें दीवारों से हटकर पिंजरे से जा टकराईं, उसे पिंजरा खाली लगा, एक पल के लिए उसे लगा उसकी आँखों का धोखा है। सहसा दूसरे पल उसने आँखें मलते हुए पिंजरे की तरफ़ देख़ा, उसे पिंजरा खाली ही नज़र आया। वह पिंजरे के पास पहुँची, एक हवा का झोंका उसके सीर के ऊपर से गुज़र गया, उसके जूड़े में से कुछ लटें निकलकर उसके चेहरे पर बिखर गईं। वह बाल ठीक करते हुए बोल पड़ी, "कुनाल कहीं से एक तोते का छोटा बच्चा लाये थे, कुछ दिनों बाद हमें उसका नामकरण मिट्ठू कर दिया। वह धीरे-धीरे हमारे परिवार में रच-बस गया था, एक सदस्य के रूप में उसने जगह ले ली थी। उसको पढ़ाया भी गया था, एक टीचर की व्यवस्था की गई थी, जो उसे पढ़ाया करते थे। बहुत जल्द वह परिवार के लोगों का नाम भी जानने लगा था, बोलने लगा था। ख़ासकर वह मुझे रेशमा-रेशमा कहकर पुकारता रहता था। सुबह-सवेरे उसके मुँह से राम-राम का जाप प्रारम्भ हो जाता था। घर की कोई बात मिट्ठू से छुपी न रहती थी। कभी मेरे और कुनाल का झगड़ा हो जाता तो, वह सारे घर में ढिंढोरा पीटता फिरता था। कुनाल उसके लिए बाज़ार से चिप्स, चाॅकलेट आदि लाया करते थे, इसलिए वह कुनाल के इशारों पर नाचता-फिरता था। वह एक पक्षी था, लेकिन इंसानों की तरह उसमें सोचने-समझने की क्षमता थी, दिखने में वह नन्हा सा छोटा जीव बहुत सुन्दर लगता था, उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही, वह बरबस सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेता था, लेकिन कभी मेरी और उसकी बनी नहीं, मुझे वह पसन्द नहीं था।"

आसमान पर सूरज बादलों के झुण्डों में आँख मिचौली कर रहा था, हल्की-हल्की ठण्डी हवा बहे जा रही थी, पेड़ों की टहनियाँ हिले जा रहीं थीं।     

अब वह कुछ और देखे- उसके मन ने साथ नहीं दिया और न ही कुछ और देखने की हिम्मत हुई, उसने एक बुलन्द आवाज़ मारी, "रामू काका राम काका…"

एक वृद्ध व्यक्ति भागते हुए आया, सामने उसे देखकर अजीबों-गरीब तरीके से देखकर बोला पड़ा , "मालकिन! आप? यकिन नहीं हो रहा आप है, एक पल के लिए तो मुझे लगा जैसे में कोई स्वप्न देख रहा।"

"आप स्वप्न नहीं देख रहे, सचमुच में ही हूँ," रेशमा ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा।

"आप कब आई? मेरी तो नज़र आप पर नहीं पड़ी मैं बाहर आँगन में पेड़-पौधों में पानी डाल रहा था," रामू ने अपना चश्मा ठीक करते हुए पूछा।

"अभी थोड़ी देर पहले। मेरी भी आप पर नज़र नहीं पड़ी, दरवाज़ा खुला था, सोचा सब अन्दर ही मिलेंगे, लेकिन अन्दर कोई भी नज़र नहीं आया, तब मैंने आपकों आवाज़ दी, साहब घर पर नहीं क्या?"

"अभी थोड़ी देर पहले ही बाहर गये हैं," रामू ने जवाब देते हुए कहा।

"साहब कहाँ गये हैं, आपको बताकर गये हैं?" जिज्ञासावश पूछा।

"नहीं मालकिन, बताकर तो नहीं गये।"

"कब तक लौट आयेंगे?"

"बोलकर तो एक घण्टे की गये हैं, ज़्यादा भी हो सकता है, मालकिन आप खड़ी क्यों हैं, बैठोे ना, मैं आपके लिए स्पेशल अदरक वाली चाय बनाकर लाता हूँ।"

"आप रहने दो, मैंने चाय पीना ही बंद कर दिया है।"

"पहले तो आप अदरक वाली…"

"पहले की बात और थी, अब की बात और है। वक़्त एक जैसा कहाँ रहा है और मैं भी वक़्त के साथ बदल गई हूँ। अब मुझे अदरक वाली चाय पीने की आदत न रही।"

"तो नीबू पानी…?"

“नहीं-नहीं, आप परेशान न हो, मुझे जो भी चाहियेगा, मैं आप से बोल दूँगी।"

कुछ पलों के लिए वातावरण शांत सा हो गया, हवाओं के झोंकों के साथ-साथ पेड़ों के पत्तों की फड़फड़ाने की धीमी-धीमी आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं। रेशमा ने पिंजरे की ओर इशारा करते हुए पूछा, "पिंजरा कैसे खाली है, मिट्ठू कहाँ गया?"

"साहब ने उड़ा दिया।"

"कितना अच्छा था, कितनी मिठास थी उसकी आवाज़ में, मन ख़ुश हो जाता था उसका एक स्वर सुनते ही; साहब ने क्यों उड़ा दिया, कोई ख़ास वज़ह?" 

"वो सारे दिन आपका नाम लेता रहता था।"

"इतना याद करता था वो मुझे?"

"हाँ मालकिन।"

रेशमा खिड़की के पास जाकर बाहर का दृश्य देखने लगी, घर के आँगन के लाॅन में हरी-हरी दूब और पेड़-पौधों की जगह उसे बंजर जमीन और इक्के-दुक्के पेड़-पौधे नज़र आये। उससे रहा नहीं गया वह पूछ बैठी, "रामू काका आँगन की कैसी दशा कर रखी है, वो सुन्दर-सुन्दर फल और फूलों के पेड़-पौधे कहाँ गये?"  

"सब सूख गये मालिक," उदास होते हुए बोला पड़ा।

वह सोचने लगी, "घर और आँगन का सारा नक़्शा ही बदल गया, लगता है आँगन की हरियाली को किसी की नज़र लग गई। कभी घर के आँगन में हरी-हरी दूब और सुन्दर-सुन्दर फल और फूलों के पेड़-पौधे हुआ करते थे, जिन पर रंग-बिरंगी तितलियाँ अपना डेरा डाले हुए रहती थीं, पेड़ों की डालियाँ फलों और फूलों से लदी रहती थी और हवाओं के झोंकों से फूलों की ख़ुशबू आँगन के साथ-साथ घर के कोने-कोने में फैल जाया करती थी, कितना ख़ुशनुमा मौसम हो जाता था, मन को कितना सुकून मिलता था, सारी थकान पलभर में छूमंतर हो जाती थी। लेकिन अब क्या है, अब तो सब ख़त्म हो गया, न फूल बचे हैं न तितलियाँ और न ख़ुशबू।

"कैसे सूख गये? लगता है आप ने ठीक तरह से उनकी देखभाल ही नहीं की?"

"अब क्या बताऊँ आपको?"

"कहो काका, मैं सुनना चाहती हूँ, घर का सारा नक़्शा कैसे बदल गया। ये घर पहले जैसा नहीं रहा।"

"आपके जाने के बाद, इस घर से बहारें रूठ गईं, घर के कोने-कोने में पतझड़ समा गया, धूल भरी आँधियाँ प्रहार करने लगीं और... लेकिन अब सब ठीक हो जायेगा, आप परेशान न हों, फिर बहार आयेगी, फिर आँगन में फूल खिलेंगे और फिर सब महक उठेगा।"

"हमें नहीं लगता काका, बहारें आयेंगी। हमें तो लगता है बहारें सदा के लिए रूठ गई हैं, घर से, आँगन से और फूलों से, अब वो आने वाली नहीं।"

"मालकिन वक़्त बदलते देर नहीं लगती, वक़्त सबका आता है, एक दिन फिर आयेगा इनका वक़्त, जब बहारों को आना पड़ेगा, फूलों को खिलना पड़ेगा और महकना पड़ेगा।"

रेशमा इन बातों में और उलझी नहीं रहना चाहती थी, वो जानती थी अगर वह उलझने की कोशिश करेगी तो शायद उसकी आँखें भर आयेंगी, अतीत के चित्र सामने आने लगेंगे और वह अपने आप पर क़ाबू नहीं पा सकेगी। वह खिड़की की ओर से हटकर ज्यों ही कुर्सी की ओर आने लगी, सहसा उसका ध्यान किताबों की अलमारी की ओर गया। तपाक से उसके मुँह से निकला, "इतनी सारी किताबें, किसकी हैं?"

"साहब की हैं, वो अक्सर पढ़ते रहते हैं।"

"कुनाल और किताबें? किताबें पढ़ने का जूनून उनको कब से सवार हो गया? पहले तो कभी उनको पढ़ते नहीं देखा।"

"आपके जाने के बाद, उनमें बहुत बदलाव आ गये हैं मालिकन, देर रात तक किताबें पढ़ते रहते हैं और अब तो वो लिखने भी लगे हैं।"
"क्या?"

"कविता, गीत-ग़ज़लें और कहानियाँ।" 

रेशमा ख़ुश होते हुए बोली, "सच में, वो लिखने लगे हैं? मुझे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा।"

"मालकिन वो बहुत अच्छा लिखते हैं, अक्सर रात को अपनी कविता, गीत-ग़ज़ले और कहानियाँ मुझे सुनाते रहते हैं। मैं इतना पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं, परन्तु उनकी कविताओं में मुझे एक दर्द झलकता है और अकेलापन भी महसूस होता है। शायद आपको याद करते हुए लिखते हैं। साहब बता रहे थे बहुत जल्द उनकी मौलिक किताब भी बाज़ार में आने वाली है।"

"काका मुझे भी बताओ ना, मैं भी देखना चाहती हूँ, क्या-क्या लिखा है उन्होंने मेरे बारे में।"

"मैं अभी आपके लिए साहब की डायरी लाता हूँ, वो उसी में लिखते है अपनी नज़्में।"

रामू डायरी लेने के लिए चला गया, रेशमा मन ही मन कहने लगी, "सच कुनाल तुम कितने बदल गये हो, मैंने पहले कभी आपके बारे में ऐसा नहीं सुना। मुझे आज अजीब सा महसूस हो रहा है, जो कभी नहीं हुआ था, मैं आज आपको समझने की कोशिश कर रही हूँ, शायद समझ भी सकती हूँ, लेकिन दुःख इस बात का है, पहले अगर मैं आपकों समझ पाती तो शायद ये दिन…" रामू लाल रंग की एक डायरी आलमारी से निकालकर रेशमा की ओर बढ़ाते हुए कहने लगा, "मालकिन आप क्या सोचने लगी? लो, साहब की डायरी। साहब कहते हैं…"

"क्या कहते हैं?"

"ये डायरी उनके अतीत का कड़वा सच है।"

रेशमा उस डायरी को निहारने लगी, उसे लगा जैसे यह डायरी नहीं, कुनाल हो। उसके मन में अजीब सा सुकून पैदा हुआ, जो गत पाँच में उसने महसूस नहीं किया था। उसका मन था, वह डायरी को चूम ले, अपनी बाँहों में समेट ले, लेकिन उसे ऐसा करना मुनासिब नहीं लगा। वह अपने हाथों में डायरी थामकर, आरामदायक कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगी। डायरी के पृष्टों के शब्दों में कुनाल का चित्र उभरता जा रहा था, और वो भीगी आखों से पढ़ते जा रही थी-

"किसी बला के इश्क़ ने रात भर सोने न दिया।
 वरना हम भी यारों जगने वालों में से न थे।"
--’--’--’--’--’--’--’--’--’--’--
"तेरे इंतज़ार में गुज़रे ज़माने मेरे।
ए दोस्त लौटकर आजा पुराने मेरे।"
--’--’--’--’--’--’--’--’--’--’--
"यहाँ भी ग़म है, वहाँ भी ग़म है,
तू बता ज़िन्दगी, सितम कहाँ कम है।"
’--’--’--’--’--’--’--’--’--’--’--
"तुम्हारी महफिल में चाँद-तारों का आशियाना है,
हे हुस्न की देवी तुम पर क़ुर्बान सारा ज़माना है।
कितनी फ़ुरसत से तराशा है, ये बदन संगमरमर सा,
जिसने भी देखी एक झलक, वही तेरा दिवाना है।"

सहसा उसने डायरी बंद कर दी, उसे अन्दर घुटन के साथ कुछ दुखता हुआ महसूस हुआ, आँखे भीगी-भीगी सी हो आई थीं, हाथ-पैर कँपायमान हो चले थे। उसके होंठ हिले और वो बोल उठी, "अब और नहीं पढ़ा जाता काका।"

"क्या हुआ मालकिन?"

“अन्दर से कुछ दुखता है, बहुत।" 

उसने डायरी टेबिल पर रख दी, डायरी से नज़रें हटकर दीवार पर जा टकराईं, वो एक लम्बी साँस लेकर बोल पड़ी, "मेरे जाने के बाद कितना कुछ बदल गया, ये घर, घर होकर भी घर नहीं लगता, सब बिखरा-बिखरा लगता है। दीवारों का कलर कितना फीका-फीका, मैला सा लगने लगा है, कभी दीवारों की तरफ़ कुनाल का ध्यान नहीं जाता क्या?"

"जाता तो है पर…"

"पर क्या?"

"कहते हैं, एक दिन सब यहीं रह जायेगा, पीछे कौन है खानेवाला। मालकिन साहब बहुत टूट गये है, देर रात घर आते हैं, वो भी शराब के नशे में लहराते-लहराते।"

"कुनाल और शराब? आप झूठ बोल रहे हैं काका, कुनाल शराब पीना तो दूर, शराब छूते भी नहीं हैं।" 

"हम सच कह रहे हैं।"

"आपने कभी रोक नहीं।"

"रोका तो बहुत, पर मानते कहाँ हैं, कहते हैं किसके लिए जीना है, कौन अपना है, जो साथ थे वो तो बहुत पहले ही…"

"बस रामू काका बस, अब और नहीं सुना जाता। इन सबकी मैं ज़िम्मेदार हूँ, मैं नासमझ थी समझ नहीं न पाई, घर को, गृहस्थी को, रिश्तों को, सच काका मै सबकी दोषी हूँ, अगर मैं लक्ष्मण रेखा पार न करती तो आज ये सब नहीं होता। पहले मैं इतनी समझदार न थी, आज समझ में आ गया, लेकिन सब बेकार, अब बहुत देर हो चुकी है, रिश्तों में बहुत दरारें उभर आई हैं, जो शायद ही ख़त्म हों।"

"आप ऐसा क्यों कहती है?"

"और क्या कहूँ? मैं सबकी गुनहगार हूँ, अपराध मैंने किया और सज़ा सबको मिल रही है। मैंने कभी कुनाल को समझने की कोशिश ही नहीं की, अगर की होती तो मैं उनसे पाँच साल दूर न रहती। आज मुझे अपनी ग़लती का पश्चाताप है, लेकिन काका मैं किस मुँह से कहूँ? मेरी ग़लती माफ़ी के क़ाबिल नहीं, मैंने स्वर्ग जैसे घर को नरक बना डाला, और देवता समान पति को..., एक ग़लतफ़हमी के कारण मुझे से कितना बड़ा अपराध हो गया।"

"मालकिन! सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते।"

"मैं शाम को न आ सकी, मुझे आने मैं बहुत समय गुज़र गया। ख़ैर छोड़ो, अब इन बातों में उलझने से क्या फ़ायदा, जब सब कुछ लुट चुका है। साझ ढल कर रात हो आई है, लेकिन अभी तक कुनाल नहीं आये काका?"

"आप परेषान न हो, वो आते ही होगे। मालकिन सुबह से शाम ढ़लने को आई, आपने न चाय ली और न पानी। मैं आपके लिए खाना बना देता हूँ, आपकों भूख लगी होगी?"

"आप परेशान न हो, कुनाल को आ जाने दो, फिर हम सब साथ मिलकर खायेंगे।  माँजी कहा है रामू काका?"
"माँ जी…?"

"हाँ माँजी, मुझे उनकी बहुत याद आ रही है, उनसे मिले जो बहुत दिनों हो गये।"

"माँ की ख़बर लेने की तुम्हें आज फ़ुरसत मिली है?" खुले दरवाज़े की ओर से आवाज़ उभरी। 

"कुनाल आप?"

"तुम यहाँ क्यों आई हो? रामू काका किसी अनजान व्यक्ति को घर के अन्दर क्यों आने दिया?"

"मालिक…"

"ये मेरा घर है," रेशमा ने हक़ जताते हुए कहा।

"कैसा घर?" कुनाल ने तमकते हुए कहा।

"जैसे आपका है।"

"ये घर तुम्हें पाँच बरस बाद याद आया है, जब सब कुछ टूटकर बिखर गया है। अब तुम्हारी इस घर में और घर में रहने वालों के दिलों में कोई जगह नहीं, तुम यहाँ से चली जाओ।"

"आप अब भी नाराज़ हैं?"

"तुम मेरी कौन हो, जो मैं तुमसे नाराज़ होने लगा," कुनाल का चैहरा लाल हो चुका था, आँखों में साफ़ नफ़रत तैरती हुई दिखाई पड़ रही थी। “तुमसे कोई रिश्ता नहीं, और नहीं मैं रखना चाहता हूँ।"

"कुनाल आपकी नाराज़गी जायज़ है, मैंने अपराध किया है, जो माफ़ी के क़ाबिल नहीं, मैं नासमझ थी, समझ नहीं पाई, रिश्तों को, मैं अपने खुले विचारों और अपनी आज़ादी के चक्कर में आप से, घर से, घरवालों से दूर होती चली गई। मैं फ़िल्मी अंदाज़ से ज़िन्दगी जीना चाहती थी, लेकिन ज़िन्दगी फ़िल्मी अंदाज़ नहीं जीयी जाती, वो तो कोरा दिखावा है, एक छल है। अब मैं देख सकती हूँ, सोच सकती हूँ, समझ सकती हूँ, इतनी समझ मुझ में आ गई है, मैं जानने लगी हूँ दुनिया और दुनिया वालों को। लेकिन अब क्या? बहुत समय गुज़र गया है, सब बिखर गया है, ताश के पत्तों की तरह, काँच के टुकड़ों की तरह। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। आप अपने दिल में जगह न दे सको तो, कम से कम इस घर के किसी एक कोने में जगह दे दो, मैं सारी ज़िन्दगी उसी में पड़ी रहूँगी," रेशमा ने अपने दिल में उमड़ रहे सलाब को बाहर निकालते हुए कहा।

"तुम्हारे लिए ये घर खाली नहीं है, तुम जा सकती हो।"

"ठीक है, मैं चली जाउँगी, लेकिन मैं जाने से पहले माँजी से मिलना चाहती हूँ।”

"तुम माँ से नहीं मिल सकती।"

"प्लीज़ कुनाल मुझे माँजी से मिल लेने दो एक बार।"

"माँ इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकीं हैं, जहाँ से लौटकर आना नामुकिन है।"

रेशमा पागलों की तरह चिल्लाई, "नहीं ये नहीं हो सकता, हे ईश्वर तुमने ऐसा अनर्थ क्यों किया, अपराध मैंने किया, सज़ा मुझे क्यों नहीं दी?" इतना कहते-कहते रेशमा के शरीर में कम्पन सा हुआ और वह एक झटके से फ़र्श पर आ गिरी।

होश में आने के बाद उसने चारों ओर अपनी नज़र दौड़ाई, वह एक आरामदायक पलंग पर लेटी हुई थी, उसने उस पलंग को ग़ौर से देखा, यह वही पलंग है जिस पर वो और कुनाल कभी एक साथ सोया करते थे। अब उसका ध्यान दीवार घड़ी पर गया, जो अपनी समान गति से चली जा रही थी। रामू उसके पास खड़ा था और कुनाल पास ही कुर्सी पर बैठकर कुछ पढ़ रहा था। 

"रामू काका इसे होश आ गया, तुम इसे छोड़ आओ," कुनाल ने आदेश जारी करते हुए कहा।

"आप रामूकाका को परेशान मत करो, मैं ठीक हूँ, अकेली चली जाऊँगी।"

अब रामूकाका से नहीं रहा गया, उन्होंने अपने दिल का लावा उगल दिया, "मालिक इतने पत्थर दिल मत बनो, घर की लक्ष्मी का अपमान मत करो, इन्हें मत जाने दो मालिक, रोक लो।"

"रामूकाका मैं घर की लक्ष्मी नहीं, मैं तो एक गुनहगार हूँ और यही मेरी सज़ा है।"

"मालिक मालकिन को रोक लो, ग़लतियाँ इंसान से ही होती हैं, इंसान तो ग़लतियों की पुतला है।”

रेशमा बोझिल क़दमों से दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी, ख़ामोशी का वातावरण तैर गया था, आसमान पर काले बादल छा गये थे, चाँद काले बादलों में क़ैद होकर घुट रहा था, हवाएँ प्रहार करने लगीं थीं और पेड़ों के पत्ते फड़फड़ा रहे थे। रामू की आँखों में भी आँसुओं का सैलाब सा बहे जा रहा था, कुनाल सिर झुकाये गहरी सोच में उलझा हुआ सा दिखाई पड़ रहा था।

आख़िरकार कुनाल के ख़ामोश होंठ हिले, "तुम इस घर को सँभाल सकों तो, तुम्हें इस घर में और घरवालों के दिल में जगह मिल सकती है।"

रेशमा दौड़ती हुई आकर कुनाल के खुले आग़ोश में समा गई और फूट पड़ी। तभी एक नन्हा सा जीव खुले आकाश को छोड़कर घर के अन्दर दाख़िल होते हुए बोल पड़ा, "रेशमा आ गई, रेशमा आ गई.…!"


उन तीनों की नज़रें इस आवाज़ की ओर गईं, तीनों एक साथ बोल पड़े- “मिट्ठू तुम।"

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