लोकपाल बिल
कथा साहित्य | लघुकथा अमित राज ‘अमित’4 Mar 2016
मैं अनशन पर बैठा हूँ, मेरे साथ मेरे कुछ सहयोगी मंच पर, मेरे साथ विराजमान हैं। मंच के ठीक नीचे जनता की भीड़ हाथों में लोकपाल बिल के पोस्टर लेकर खड़ी हुई है। बड़ा पंडाल लगा हुआ हैं, जनता के नारों की आवाज़ चारों दि्शाओं के कोनों में गूँज रही है- "लोकपाल बिल लागू होगा, सरकार को झुकना पड़ेगा, लोकपाल...!"
सब की नज़रें मुझ पर टिकी हैं, मैं खाली पेट आमरण अनशन पर अधलेटा बैठा हूँ, लोकपाल बिल पारित करवाने के लिए।
बाहर से पुलिस की टोलियाँ आती हैं, लाठी चार्ज करती हैं और मीडिया वाले सीधा प्रसारण टी.वी. पर कर रहे हैं। पुलिस के लाठी-चार्ज से भीड़ में भगदड़ मच गई है, सब अपनी-अपनी जान बचाने में लगे हैं। पुलिस वाले मंच पर चढ़कर लाठियों के प्रहार करने लग जाते हैं। मैं चिल्लाता हूँ- "हम डरने वाले नहीं, लोकपाल बिल लायेंगे...!"
श्रीमती जी ने पंलग पर आकर मुझे जगाते हुए पूछा, "क्या हो गया, सोते-सोते भी क्या बोल रहे हो?"
मैं नींद से जागता हूँ, अपनी नज़रें चारों ओर दौड़ता हूँ, देखता हूँ, मैं कमरे में पंलग पर लेटा हूँ और श्रीमतीजी मेरे सामने खड़ी हैं।
"क्या हुआ, कुछ कहोगे भी?" श्रीमतीजी ने पुनः सवाल दोहराया।
"कुछ नहीं, स्वप्न देख रहा था।"
"डरावना।"
"नहीं।"
"तो कैसा स्वप्न?"
"लोकपाल बिल..."
"अब तो स्वप्नों में भी लोकपाल बिल दिखने लगा है आपको?"
मै हैरानी के साथ, ख़ामोश सा श्रीमतीजी की ओर देखता हूँ।
श्रीमती जी ने समझाते हुए कहा, "टी.वी. पर समाचार कम देखा करो, अब तो कोई भी सीरियल देखने ही नहीं देते। टी.वी. का रिमोट लेकर बैठ जोते हो, समाचार देखने, लेकिन अब आज से ही बंद आपका समाचार देखना।"
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