विश्वास
कथा साहित्य | लघुकथा अमित राज ‘अमित’31 Dec 2015
सलोनी ने जैसे ही दरवाजे के अन्दर प्रवेश किया, शर्माजी ने डा़ँटते हुए पूछा- "इतनी देर कहाँ कर दी? तुम्हारी स्कूल की छुट्टी हुए तो तीन घण्टे हो गये। तू अब तक कहाँ थी?"
"पापा मैं अपनी एक सहेली के घर चली गई थी," सलोनी ने जवाब दिया।
"तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, घर से स्कूल और स्कूल से घर चली आया करो," शर्माजी ने रौब से कहा।
"पापा आप मुझे हर बार मुझे डाँटते रहते हो, कभी प्यार से नहीं बोलते," सलोनी ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा।
"बेटा मैं तुम्हारा भला ही चाहता हूँ, बुरा नहीं। अब तुम बड़ी हो गई हो, तुम्हारा इधर-उधर आना-जाना अच्छा नहीं हैं, ज़माना बहुत बदल गया है। कुछ ऊँच-नीच.......," शर्माजी ने समझाते हुए कहा।
"पापा आप तो मुझे कैद करके रखना चाहते हो, यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओ। क्या आपको अपनी बेटी पर विश्वास नहीं?"
"बेटा तुम पर तो मुझे पूरा विश्वास है, परन्तु इस ज़माने पर नहीं।"
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