ग़रम मसाला
कथा साहित्य | लघुकथा अमित राज ‘अमित’14 Nov 2014
"आपने जो पुस्तक की पाण्डुलिपी मेरे पास प्रकाशन के लिए भेजी थी, उसको मैंने पढ़ा," प्रकाशक ने लेखक महोदय से नज़रें मिलाते हुए अपनी बात कही।
लेखक ने जिज्ञासावश पूछा- "कैसी लगी फिर आपको, पसन्द आई भी या नहीं?"
"जी! आपकी पुस्तक सामाजिक बुराइयों को उजागर करने के साथ-साथ खण्ड़न भी करती है। ख़ासतौर मुझे बहुत पसन्द आई।"
लेखन ने राहत की साँस लेते हुए पूछा- "तो आप प्रकाशित करने को तैयार है?"
"जी! क्षमा चाहूँगा......।"
"लेकिन क्यों? इंकार की वज़ह जान सकता हूँ?"
"देखिए आज के युग में ऐसी पुस्तकों को पढ़ने वाले पाठकों की संख्या न के बराबर ठहरी, प्रकाशित होने के बाद कौन लेगा आप ही बताइए?" प्रकाशक ने अपनी मज्बूरी बताते हुए कहा।
"लेकिन प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद........ "
बात काटकर प्रकाशक बोला- "वो ज़माने अब कहाँ? वो तो उनके साथ ही गुज़र बसर हो गये, अब वो बात कहाँ, आज के युग के पाठक ऐसी पुस्तकें पढ़ना तो दूर, देखना भी पसन्द नहीं करते।"
लेखक ने निराशा ज़ाहिर करते हुए पूछा- "कैसी पुस्तके पढ़ना पसन्द करते है वर्तमान के पाठक?"
"जी! पुस्तक ऐसी हो, मतलब कहानियाँ, उपन्यास ऐसे हों जिनमें कॉलेज लाईफ के साथ-साथ रसीले संवाद और सैक्स का गरमा गरम मसाला हो।"
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
ग़ज़ल
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं