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शांति दूत बने जब भगवान!

शांति दूत बने जब भगवान,
द्रौपदी को याद आया अपमान,
बोली माधव से, करके उन्हें प्रणाम,
 
तुम शांति दूत बन क्यूँ जाते हो ?
शांति की राह किसे दिखाते हो?
क्या तुम भी भूले मेरा अपमान,
या लगाने चले हो घावों का दाम।
 
तनिक याद करो वो दृश्य भयानक,
अकेली थी मैं, था कौन सहायक?
दुःसाशन ने केशों से मुझे खींचा था,
भरी सभा में मुझे घसीटा था।
 
दुर्योधन मुझ पर ख़ूब हँसा था,
कर्ण ने वेश्या कहकर तंज़ कसा था।
दुःशासन ने मुझे हाथ लगाया था,
इन सबने गोविंद, बहुत रुलाया था।
 
सभा भरी थी महारथियों से,
सगे संबंधी और नरपतियों से।
उनमें से भी कोई कुछ ना बोला,
पितामह ने भी अपना मुँह ना खोला। 
 
मेरा चीर हरण जब हुआ था,
मर्यादा का दहन जब हुआ था,
कोई सहायता को मेरी ना आया।
केवल तुमने ही था मान बचाया।
 
मेरा मन भला शांति कैसे चाहेगा,
तुम्हारा ये प्रस्ताव मुझे कैसे भाएगा।
मेरे अपमान का प्रतिशोध तो रण है,
दुर्योधन दुःशासन और कर्ण का मरण है। 
 
मेरे ये केश खुले यदि रह जाएँगे,
रण में ध्वजा बन ये लहराएँगे।
अपमानित जीवन मेरा है जब तक,
पांडव कायर कहलाएँगे तब तक।
 
मैं नहीं चाहती गिरिधर, तुम जाओ,
कोई शांति प्रस्ताव अब उन्हें सुनाओ।
अब तो रणभेरी तुम बज जाने दो, 
महासमर में मरघट बन जाने दो। 
 
रण में जब दुष्ट सब मारे जायेंगे,
पाशे शकुनी वाले सब हारे जायेंगे।
शोणित से वसुधा की प्यास बुझेगी,
मेरे घायल मन की भी आग बुझेगी।

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