किताबें बोलती हैं
काव्य साहित्य | कविता हनुमान गोप1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
किताबें बोलती हैं,
भेद छिपे ये खोलतीं हैं।
सही ग़लत भी तौलती हैं,
किताबें बोलती हैं।
मौन रहती हैं लेकिन,
भीतर राज़ इनके गहरे हैं।
इनको है पता सब,
समाज के जो भी पहरे हैं।
अनुभव है सदियों का,
पन्नो में ज़िंदा हैं सब किरदार।
संगम ये नदियों का,
इनमे भरा ज्ञान का भंडार।
ये साथी हैं उनका,
जिनका कोई मीत नहीं।
इनसे परे जग में
कोई राग और संगीत नहीं।
ये मौन रहकर भी
जीवन का राग सुनाती हैं।
ये शांत भाव से
मनुष्य को मनुजता सिखाती हैं।
जीवन का सारा ज्ञान,
अपने भीतर समेटती हैं।
पढ़ने वाला जो मिल जाए,
किताबें बोलती हैं।
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