अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शिकायतें

कहीं बैठ कर एकांत में आज 
सोच रही होगी 
वो मेरे ही बारे में ज़रूर,
खिझलाकर
पलट रही होगी अतीत के पन्नों को
या समेट रही होगी बैठे-बैठे दर्द कहीं 
शायद तभी मन मेरा भी बैठा जा रहा है।


शिकवा तो बहुत होगा कल्याणी 
बड़ी लंबी चौड़ी होगी शिकायतों की फ़ेहरिस्त है न!
सहेज रखी होगी सीने में ज़रूर भर-भर कर 
नाराज़गी अरसे की 


तेरा शिकवा जायज़ है कल्याणी 
जायज़ है तड़पकर एकांत में भेजना 
तुम्हारी ग़मगीन आहें 
मेरी ओर।


पर अफ़सोस न कर
आज वक़्त के इस पड़ाव पर आकर लगता है
विभाजन और विरह ही 
वास्तविक परिणति है प्रीत की


एक टीस का उठना रह-रह कर
खिझला कर बैठ जाना,
खिन्न होकर पलटना
एकांत में अतीत के पन्नों को,
समेटना दर्द,
उतरना फिर छाती में यंत्रणाओं का 
एक -एक कर बारी-बारी -
रंजिश,
नफ़रत,
और नाराज़गी,
अंतिम परिणति है प्रीत की 

कुछ और नहीं कल्याणी!
यह प्रीत ही तो है 
जो तुझमें, मुझमें न जाने क्या-क्या बन कर
आ उतरता है बार-बार 


तब छटपटा कर भेज देती हो 
अपनी झुँझलाहट भरी आहें तुम मेरी ओर 
ख़ुद को हल्का करने के लिए
और कर देती हो मुझे भारी और गंभीर हर बार।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

अनूदित कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं