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युद्ध में औरत

(कुछ न कुछ टकराएगा ज़रूर)
प्रेषक : रेखा सेठी

 

मैं जहाँ जब भी जाऊँगी
औरत की देह में रहूँगी

 

समझने लगी थी कि
अब मेरी उम्र मेरा कवच है
लेकिन अखबारों ने
बताया
कि औरत की उम्र सिर्फ़ उसकी देह होती है
वह गर्भवती हो, बच्ची, अधेड़ या बूढ़ी
इस्तेमाल की चीज़ रहती है।

 

जिस देह को औरत ने सबसे फ़ालतू मान लिया है
वही उसका सबसे बड़ा
बार्टर जिन्स है
इसी से शायद वह थोड़ी देर को
अपने सगों के ज़िन्दा पल खरीद ले!

 

जिसका उत्सव कभी मनाया था उसने
उसका सोग़ मनाने लायक़
घर भी शरीर नहीं रहा
उसके सारे बाशिन्दे
कोमा में पड़े हैं –
दिल, दिमाग़, सोच और संवेदना।

 

इसे उतारकर नहीं रख सकती वह
साड़ी या बुर्क़े या लबादे की तरह
और न धोकर उजाल सकती है
धूप में सुखा कर
खाल का ताना और स्नायु का बाना
उधेड़ कर अलग कैसे कर दे?
वह सिर्फ़ एक गन्दे चिथड़े की तरह
इसे लपेटे रख सकती है
जिसमें कभी भी रंगीनी
झलक सकती है
किसी भी आँख को।

 

उसका मरियम और दुर्गापन
जब जाग जाता है
कुछ देर को आँख से लपट उठती है
आततायी चिनगारियों के बीच
खो जाती है लपट
और भीड़ के सामने
अकेली पड़ जाती है उसकी साख।

 

मैं शर्तिया कह सकती हूँ
ऐसे मौकों पर
वह न औरत बनना चाहती है
न मर्द
कुछ और ही –
जिसे हम सही संज्ञा के अभाव में
इन्सान कह सकते हैं।

 

तब बेहद अविश्वासी मेरे मन में
एक विश्वास पनपता है
शाप का –
हर सतायी हुई, यानी हर औरत का शाप
ज़हर बन कर बरसे एसिड वर्षा-सा
तथाकथित भले-बुरों सब पर एक-सा
और उस दिन
मैं देह के उत्सव में नाचूँ

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