उठो
काव्य साहित्य | कविता इन्दु जैन13 Jul 2008
(सबूत क्यों चाहिए)
प्रेषक : रेखा सेठी
उठो, एक बार फिर ज़ोर लगाएँ
शायद दरवाज़ा खुल जाए
चार दशाब्दियों से बंग हुए
पल्ले अकड़ गए हैं
कुंडे चूल जकड़ गए हैं
नामुमकिन लगता है सब-
बिना हवा कंधे कमज़ोर
माना, तुम जन्मे इसी अंधे कोठर में
बाली हवा में पले
फेफड़े पूरे न बढ़े
दाँतों से काटी थी नाल तुम्हारी
लेकिन
ये दरवाज़े भी चालीसों साल पुराने हैं
घर बनाया तो होगा ही दीमक ने
जंग ने की तो होगी जंग फ़ौलाद से!
मेरे बूढ़े रोशनी-पिए कंधे
तुम्हारे जवान अंधेरे पुट्ठे
मिल कर ठेल नहीं पाएँगे क्या
सुरंग से निकलने का रास्ता?
एक बात तो देख लो
धूप आसमान
सूँघ लो चाँद नई
हवा के थेपेड़ों में खड़े रहने की
कोशिश तो कर लो
बाहर के क़ैदियों से मिल लो
ढूँढ लो उसकी गर्दन
जिसने डाली थी बेड़ियाँ
दरवाज़े पर ताले-कुंडियाँ...
अँधेरे के मुकाबले ही रोशनी
छोटी-बड़ी है
प्यार की पहचान कभी-कभी
विस्फोट से होती है
जानता नहीं जो
वही जानता है सबसे ज़्याआ
खेल-खेल में आ पहुँचती है मंज़िल
जिसका अता-पता नहीं था
किसी नक्श पर
प्रतिक्रिया कह कर
नकार में जीना क्या
और जीने के लिए
मरना भी पड़े
तो मरना क्या?
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