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अछूत कौन—चार लघुकथाएँ

 

1. 

“पिंकी . . . ओ . . . पिंकी . . . अपने जन्मदिन की खीर अपनी सहेली चुन्नी को पहुँचा आओ,” माँ ने मुझसे कहा। 

“अच्छा मम्मी, पर वो तो अछूत है ना, इसलिए आपने उसे मेरे जन्मदिन पर नहीं बुलाया, है ना,” पिंकी ने उत्तर दिया। 

माँ पिंकी की बात सुनकर अवाक्‌ हो गई। इतनी छोटी बच्ची को मैं यह क्या छुआछूत सीखा रही हूँ जबकि इस शहर में अब कहाँ रहा छूत-अछूत का भेद। बच्ची भी कहीं मेरी तरह छोटी मानसिकता की शिकार न हो जाए। माँ की महत्ता का विवेक जैसे जाग उठा। 

“पिंकी बेटी, मुझसे भूल हो गई, तुम न इस फेर में मत पड़ना, यह खीर उसे दे आओ और मेरी ओर से माफ़ी भी माँग आना। दरअसल अछूत वो नहीं हम हैं तन से भी और मन से भी“


2. 

मैं बाज़ार की ओर चला तो रास्ते में मैंने देखा कुछ लोग एक व्यक्ति को बुरी तरह पीट रहे थे। कुछ तमाशबीन तमाशा देख रहे थे। मैं भी वहाँ पहुँच गया और उन तमाशबीनों से पूछा कि आख़िर माजरा क्या है। कहीं यह फिर से मॉब लीचिंग का मामला तो नहीं? 

उन्होंने कहा, “एक पंडित जी मंदिर की ओर जा रहे थे और यह व्यक्ति अनजाने में उस पंडित से टकरा गया। पंडित जी  ग़ुस्से से इस व्यक्ति को एक झापड़ रसीद करते हुए चीखे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की, नीच, कमीने, अछूत तुमने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया’ और ताबड़तोड़ झापड़ मारने लगे। देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई और लोग इस पर टूट पड़े।”

मैं सोच में पड़ गया कि यह व्यक्ति अछूत है या भीड़ का यह उग्र चेहरा? ईश्वर ने तो सभी की रचना एक समान की है और ये धर्म के ठेकेदार, अपना पाखंड रचते हुए छुआछूत का चलन रचकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। असल में ये ही पाखंडी है और असली अछूत है जो मानवता को शर्मशार कर रहा है। थू है ऐसे समाज पर। 

 

3.

“माँ . . . माँ . . . मैं चुन्नी के साथ खेलने जाऊँ?” 

“नहीं . . . कभी नहीं . . . वह अछूत है, तुम उसके साथ नहीं खेल सकती।“

“माँ . . . माँ . . . वह अछूत कैसे है और अछूत कौन होता है?” 

मैं बच्ची के प्रश्न पर अवाक्‌ थी। मैं उसे कैसे बताती जबकि मैं ख़ुद छुआछूत से सहमत नहीं, पर यह समाज का चलन तो मैं नहीं तोड़ सकती और मैं नहीं चाहती मेरी बच्ची भी उसी राह से गुज़रे जिस राह से मैं गुज़री। 

मैं चुप थी और उसे इशारे से खेलने की अनुमति दे दी। मुझे लगा यह ज़ंजीर मुझे बहुत पहले तोड़नी चाहिए थी। काफ़ी दिनों के बाद आज मुझे असली ख़ुशी मिली। 


4.

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि गुरु जी से आख़िर पूछ डालूँ लेकिन हिम्मत ही नहीं होती और क्लास में सबके सामने पूछना भी ठीक नहीं समझता था मैं, कहीं बाक़ी लड़के मेरी खिल्ली न उड़ा दें। मैं इतना ज़्यादा परेशान हूँ कि पूछे बिना रहा भी नहीं जा सकता। 

एक दिन बड़ी हिम्मत कर टिफ़िन के समय मास्टर जी को अकेला पाकर उनके पास पहुँच गया। मुझे देख मास्टर जी ने बड़े प्यार से मुझे बुलाया “आओ . . .आओ . . . मोती।  क्या हुआ कुछ सवाल हल करना है क्या? तुम तो बहुत अच्छे और पढ़ने में तेज़ हो। कुछ परेशानी हो तो बेशक कहो।” मुझे झिझकते देख अपने पास बुलाया। 

“नहीं मास्टर जी, पढ़ने में कोई परेशानी नहीं है। बस मास्टर जी इधर मैं इसलिए परेशान हूँ कि मेरे दोस्त मेरे साथ खेलना नहीं चाहते, अपने संग बैठाते भी नहीं हैं। आख़िर ऐसा क्यों कर करते हैं वो? पूछने पर बताते हैं कि मैं अछूत हूँ। मास्टर जी यही परेशानी है कि आख़िर अछूत क्या होता है और कौन होते हैं?” सहमते हुए आख़िर मैंने अपनी परेशानी कह दी। 

मास्टर जी मेरे सवाल सुनकर सन्न रह गए, चेहरे के भाव बदल गए, असमंजस की अवस्था में ताकने लगे और कहने लगे, “देखो बेटे, अभी तुम्हारी उम्र कच्ची है। बड़े हो जाओगे तो सब ख़ुद-ब-ख़ुद समझ जाओगे। अभी इन सवालों में मत उलझो, खाने, खेलने और पढ़ने के दिन है अभी तुम्हारी। इसी में पूरा मन लगाओ।” मास्टर जी उत्तर देने से बचने की कोशिश करने लगे। 

मैं भी कहाँ मानने वाला था, “मास्टर जी मेरे सारे दोस्त मेरे साथ नहीं खेलते, अपने साथ बैठाते भी नहीं, कुछ पूछने पर कहते हैं तुम अछूत हो, हमारे नज़दीक नहीं आना, यदि तुम हमें छू दोगे तो हम भी अपवित्र हो जायेंगे, हम लोगों को फिर से नहाना पड़ेगा। मास्टर जी इसलिए ही तो हम क्लास में सबसे पीछे बैठते हैं। क्या हम अछूत हैं?”

मास्टर जी को लगा कि यह बालक सही कह रहा है और सही जानकारी के अभाव में घुट रहा है। इसके दिमाग़ से इस अछूत के भूत को भगाना ही होगा, नहीं तो यह ठीक से जी नहीं पाएगा। ऐसा सोचते हुए मास्टर जी ने कहा, “देखो मोती, यह जो अछूत होता है ना! इसे ईश्वर ने नहीं बनाया है बल्कि हम मनुष्य ने इसे बनाए रखा है, ख़ासकर हिदुओं में। मनुस्मृति में यह वर्णन है कि समाज को सही तरीक़े से चलाने के लिए इस समाज को चार वर्गों में कर्म के अनुसार बाँटा गया यथा ब्राह्मण अर्थात्‌ जो समाज में शास्त्र के अनुसार दिशा निर्देश देकर राजा और प्रजा को उचित सलाह दे। राजपूत अर्थात्‌ अपने राज्य को सही सलामत रखे और राजा तथा सैनिक बनकर अपने प्रजा का सदैव भला चाहे। वैश्य अर्थात्‌ वह वर्ग जो समाज में व्यापार व अन्य कार्य करते हुए अर्थ उपार्जन कर राज्य को समृद्ध करे और शूद्र अर्थात्‌ वह वर्ग जो सेवा कार्य कर इस समाज को सदैव शान्ति प्रदान करे। बस यही वर्ग विभाजन अतीत में बनाया गया जिससे राज्य व समाज सुखी संपन्न से अपना जीवन यापन कर सके। यही कालांतर से चला आ रहा था, राज्य ख़ुशहाल था। किन्तु कालांतर में इस व्यवस्था में जो शूद्र है उन्हें कुछ तथाकथित उच्च वर्ग सदैव अपने अधीन और दबा कर रखना चाहते थे। इसी के तहत बाद में इन लोगों ने एक घृणित चाल रच कर इस शुद्र वर्ग को आगे बढ़ने के मौक़े देना बंद कर दिया और समाज में यह परंपरा बना दिया कि जो शूद्र के घर पैदा हुआ हो वो जन्मजात अछूत होगा और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी वही कार्य करना होगा जो इनके दादा परदादाओं ने किया है। इसी साज़िश के तहत हरिजन को अछूत श्रेणी में डालकर शिक्षा, व्यापार व दूसरे श्रेष्ठ कार्य करने से वंचित किया गया।” 

“तो मास्टर जी, यह जो अछूत की परंपरा है वह ईश्वर द्वारा नहीं बल्कि हमारी व्यवस्था की देन है, है ना? और आज की व्यवस्था ने जो विज्ञान से तरक़्क़ी कर ली है तो हम इस अछूत व्यवस्था क्यों ढोते चले जा रहे हैं?” 

“बिल्कुल सही कह रहे हो तुम“

“इसका अर्थ हुआ अछूत हम नहीं यह व्यवस्था है और हमें इस व्यवस्था को बदलना होगा!” मेरे माथे पर अब एक सशक्त संकल्प जन्म ले चुकी थी। 

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