हमारा सूरज
काव्य साहित्य | कविता मोतीलाल दास15 Jul 2022 (अंक: 209, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
उनकी आँखें
बाघ सी चमक रही हैं
और जीभ
साँप सी लपलपा रही है
मुझे पता है
अभी वे दौड़ पड़ेंगे
और जला डालेंगे
उन कच्चे मकानों को
और सेकेंगे
ज़िन्दा गोश्त को
उन चीखती आँचों से
और खोलेंगे
शराब के ढक्कन हवाओं में
और जलती लाशों की गंध
शराब की गंधों से मिलाकर
वे गटागट पीते मिलेंगे
उनकी आँखें भी
अंगारे सी धधक रही हैं
और जीभ
सूखती चली जा रही है
मुझे पता है
अभी वे दौड़ पड़ेंगे
रात के सन्नाटे में
गाँव से दूर
उस पीपल के नीचे
और बनाएँगे खैनी
उन पक्के मकानों को
मसल के जिसे
दबाया जा सके मुँह में
ताकि बचाया जा सके
अपनी बहू बेटियों को
उन ख़ूँख़ार दरिंदों से
मेरी आँखें
देखना चाहती हैं
प्रकाश की किरणें
पर जलती झोपड़ियों से
आँखें चौंधिया जाती हैं
और खैनी का बंद होना मुँह में
बस अँधेरे में टटोलना भर है
न जाने कहाँ
मेरा सूरज खो गया है।
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