प्रकृति की पुकार
काव्य साहित्य | कविता मोतीलाल दास15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
ज़मीन के भीतर
होते हैं अनेक ताप
और ताप के भीतर
होते हैं अनेक आयाम
ज़मीं पूरी उम्रभर
सहेजती है
अपने भीतर के ताप को
और ताप भी ताउम्र
बचाकर रखता है
अपने भीतर की आँच को
परन्तु दोनों का जीवन
एक दूसरे के पूरक होने के बावजूद
बेबस है आदमी की नैतिकता पर
यहाँ ज़मीं
बेच दी जाती है
कारखानों के लिए
कई मंज़िल वाली इमारतों के लिए
और ज़मीन का ताप
कुम्हला कर या तो जकड़ जाता है
या फिर असहज हो उठता है
और कराह उठता है
कभी भूचाल के शक्ल में
तो कभी असंतुलित पर्यावरण के रूप में
दरअसल यहीं
ज़मीं और उसके ताप
निर्वाण और नवनिर्माण के आरोह में
फिर से व्यस्त होकर
हमें दे जाता है विचारों की आँधी
क्या उस आँधी को
हम आजतक समझ पाए हैं
ठीक बीज की आँच की तरह
शायद नहीं
तभी तो झेलते हैं हम
प्रकृति के क़हरों को।
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