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अजनबी-1

 

तेरे साथ के उस छोटे से सफ़र की 
वो मीठी सी यादें 
मुझे आज भी कभी-कभी सोते से जगा देती हैं 
और मैं हर बार फिर से जी लेता हूँ 
वो मीठी सी यादें 
तेरे साथ सफ़र करते-करते, कभी-कभी। 
 
तेरी वो कुछ कहती सी आँखें 
तेरी वो शरारत भरी हँसी 
तेरा वो नरम, मख़मली स्पर्श 
भर देता है एक तरुणाई आज भी मुझ में 
कितने ही मौसम बीत जाने के बाद भी। 
 
तेरी वो कभी धीमी तो कभी तेज़ 
कभी हलकी गरम तो कभी हलकी ठंडी होती साँसें 
तेरी वो हवा में लहराती लम्बी, काली, घनी ज़ुल्फ़ें 
जो ढक रही थीं कभी-कभी चेहरे को मेरे
और तू बेपरवाह, अल्हड़ नदी सी
दे रही थी निमन्त्रण मुझे साथ बहने को अपने। 
 
तेरे वो कँपकँपाते गुलाबी होंठ 
तेरा वो कसता, तपता बदन 
फिर निढाल हो मेरे कंधे से लग जाना 
कुछ वक़्त के लिए ही सही 
देता है अहसास आज भी मुझे तेरे समर्पण का। 

क्या रिश्ता था तेरा और मेरा 
ओ अजनबी 
जो जिया था हमने एक साथ 
उस छोटे से सफ़र में 
बिना एक दूसरे को जाने 
पैर लटकाये बैठे 
रेलगाड़ी में दरवाज़े के बीचों-बीच 
दिल्ली से हैदराबाद के॥ 

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