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रेडियो: मन की बात

 

मैंने उनसे
चंद मुलाक़ातों के बाद 
अपने लिये
चाहे-अनचाहे, वक़्त-बेवक़्त, सोते-जागते 
बातों की एक ऐसी रंगीन चादर बुन ली थी
जो सपने सी बेहद ख़ूबसूरत थी
मैं अब 
उसी को ओढ़ता 
उसी को बिछाता। 

 

वो मिलेगी तो ये कहूँगा
वो मिलेगी तो वो कहूँगा
मैं 
रोज़ उस चादर के एक-एक रेशे को धुनता 
मैं 
रोज़ उन रेशों के एक-एक सार को गुनता
मैं 
रोज़ उसे समेटते 
अपनी ही बातों को आकाशवाणी सा 
अपने कानों से सुनता। 
 
एक अंतराल के बाद 
वो उसी गली के मुहाने पर आई भी 
कहानी जहाँ से शुरू हुई थी 
दिल भी धड़के, आँखें भी मिलीं 
पर—
ज़ुबान न खुली 
न जाने क्यों कोई ताला सा पड़ गया था। 
 
उसका लिबास अब बदल गया था 
उसका शृंगार अब पहले से भिन्न था 
वो अब वो नहीं थी
उसका व्यवहार अब बनावटी था 
उसके बिना कुछ कहे अब सब 
अमावस की रात भी दूध सा उजला था। 
  
वो चली गयी 
एक अन्तहीन इंतज़ार अपने 
पीछे छोड़कर। 
 
“आप हमें समझ ही न पाये”
उसने जाते हुए ये कहा था
और
हम हैं 
जो 
आजतक
साल दर साल मरकर भी 
उनके लिए ही ज़िन्दा हैं। 
 
काश! मेरे पास भी कोई रेडियो होता 
जो 
मन की बात उसे सुना सकता 
जो 
मन की बात मुझे सुना सकता 
इस वक़्त रुला सकता 
भोर होने को है
इस वक़्त सुला सकता॥

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