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आमंत्रण भरी आँखें

लम्बे अरसे बाद मैं एक सेमिनार में भाग लेने देहरादून आया हुआ था। सेमिनार समाप्त होने के बाद मैं अपने पुराने काॅलेज को देखने का लोभ संभरण नहीं कर सका और अगले दिन सुबह दस बजे काॅलेज की ओर जाने वाली बस में बैठ गया। 

बस में बैठते ही अतीत की स्मृतियाँ मेरी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति चलने लगीं। आज से लगभग बीस साल पहले मेरी पहली नियुक्ति देहरादून से लगभग साठ किलोमीटर दूर पर्वतीय क्षेत्र के इसी काॅलेज में प्रवक्ता के रूप में हुई थी। उस समय मेरी उम्र यही कोई तेईस। चौबीस साल रही होगी। 

जब मैं यहाँ ज्वाइन करने आया था तो काॅलेज पहुँचते। पहुँचते चार बजे गए थे। अधिकांश शिक्षक और छात्र जा चुके थे, मगर प्रधानाचार्य और बड़े बाबू मिल गए। इसीलिए मेरी ज्वाइनिंग उसी दिन हो गई थी। काॅलेज से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा था। काॅलेज के अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी वहीं रहते थे। उन लोगों ने मुझे भी एक कमरा किराये पर दिला दिया। 

मुझे काॅलेज में ज्वाइन किये तीन दिन हो गये थे। घर से लगभग चार सौ किलोमीटर दूर इस छोटे से क़स्बे में अनजाने लोगों के बीच में मेरा मन बिल्कुल नहीं लग रहा था, घर की याद बहुत सताती, मगर क्या करता सर्विस तो करनी ही थी, इसलिए मजबूरी थी। 

ग्रामीण क्षेत्र का काॅलेज होने के कारण वहाँ को-एजूकेशन थी और छात्र–छात्राएँ दोनों पढ़ते थे। अधिकांश छात्र–छात्राएँ आसपास के छोटे–छोटे गाँवों से और इस क़स्बे से आते थे। काॅलेज में छात्र–छात्राओं की संख्या अच्छी थी और वहाँ पढ़ाई का माहौल था। 

इस छोटे से क़स्बे में न कोई होटल था और न ही रेस्टोरेन्ट। इसलिए चाय–नाश्ता और खाना मुझे अपने आप ही बनाना पड़ता। इन कारणों से तीन दिन में कॉलेज में समय से नहीं पहुँच पाया था। आज मैंने तय किया था कुछ भी हो जाये काॅलेज समय से पहुँचूगा। 

सुबह नहा-धोकर मैं जल्दी तैयार हो गया और नाश्ता करने के बाद आठ बजे ही काॅलेज के लिए चल दिया। काॅलेज काफ़ी ऊँचाई पर स्थित था इसलिए तीन किलोमीटर का रास्ता तय करने में पूरा डेढ़ घण्टा लग जाता था। काॅलेज पहुँचते। पहुँचते साढ़े नौ बज गए थे। प्रेअर बैल बज चुकी थी और छात्र–छात्राएँ प्रेअर-ग्राउण्ड पर इकट्ठा होना शुरू हो गए थे। 

गेम्स टीचर ने सभी छात्र।–छात्राओं को अपने। अपने क्लासों की लाइन में खड़े होने का आदेश दिया। क्लासों की पंक्ति के सामने उनके क्लास टीचर खड़े हुए थे। मैं फ़र्स्ट ईयर के क्लास के सामने खड़ा हुआ था। मैं क्लास की लाइन सीधी करा रहा था तभी लाइन में खड़ी एक लड़की मुझे देखकर मुस्कुराई। 

मैंने आश्चर्य के साथ उस लड़की की ओर देखा। वह सोलह। सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी थी। लम्बा छरहरा वदन, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, सलीक़े से कढ़े बाल और हिरन जैसी बड़ी-बड़ी आँखें। जब वह हँस रही थी तो उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे। काॅलेज की चमचमाती यूनिफॉर्म पहने वह बेहद सुंदर लग रही थी। उसकी आँखों में एक अजीब सा आमंत्रण, अजीब सा खिंचाव था। उसकी मुस्कान ने मेरे दिल में अजीब सी हलचल मचा दी थी। 

अब यह रोज़ का नियम बन गया था। वह प्रार्थना के समय मुझे देखकर एक बार मुस्कुराती ज़रूर। उस एक पल की मुस्कान का अनिवर्चनीय आनन्द उठाने के लिए मैं तीन किलोमीटर का वह चढ़ाई वाला पथरीला रास्ता एक घंटे में ही पार कर जाता। कभी-कभी मैं ख़ाली चाय पीकर ही निकल पड़ता। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं प्रार्थना में विलम्ब से पहुँचा होऊँ। बिना किसी नागा के यह क्रम चलते हुए लगभग दो महीने बीत चुके थे। 

अभी तक मैंने उस लड़की से कोई बात नहीं की थी। यहाँ तक कि मुझे उसका नाम भी पता नहीं था, परन्तु न जाने क्यों मैं अपने अन्दर उसके प्रति एक अनोखा सा आकर्षण, अनोखा सा लगाव महसूस करता। 

अब यह दुर्गम पहाड़ी स्थान मुझे ख़ुशनुमा और आकर्षक लगने लगा था। झरनों, घाटियों और वादियों में मुझे संगीत सुनाई देता, फूल मुस्कुराते से लगते और सुरमई साँझ भी मुझे आलोकित सी दिखाई देती। मन हर समय प्रफुल्लित रहता। 

लम्बी छुट्टियों में तो मैं घर चला जाता मगर, रविवार या किसी अन्य उपलक्ष्य में होने वाली एक या दो दिन की छुट्टी काटे नहीं कटती। इच्छा होती कि जल्दी से छुट्टी का दिन बीते और कॉलेज खुले। कॉलेज में आए मुझे चार महीने हो गए थे। यह चार महीने कैसे गुज़र गए मुझे कुछ पता ही नहीं चला। 

एक दिन मध्य अवकाश में मैं कॉलेज-ग्राउण्ड में कुर्सी पर अकेला बैठा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय चार-पाँच छात्राएँ वहाँ आईं। उनमें वह लड़की भी थी। एक छात्रा उस लड़की की ओर इशारा करते हुई बोली, “सर सुजाता आपके लिए आलू के पराठे बनाकर लाई है।” 

अब मुझे पता चला कि उसका नाम सुजाता था। मुझे चुप देखकर दूसरी छात्रा बोली, “सर पराठे खा ज़रूर लेना।” 

“जो बनाकर लाई है वह भी तो कुछ बोले,” मैंने उसकी ओर देखते हुए कहा। 

वह आँखें नीचे किए हुए खड़ी थी और अपने दाएँ पैर के अँगूठे से ग्राउण्ड की मिट्टी को कुरेद रही थी। 

मैंने पराठे का टिफ़िन बाक्स उससे लेकर अपने बैग में रख लिया। उसके बाद वह छात्राएँ चली गईं। जाते-जाते उसने एक बार मुस्कुराकर मेरी ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो कही पास ही जलतरंग बज उठी हो। मेरा पूरा शरीर रोमांच से भर गया था। 

जनवरी का दूसरा सप्ताह आ गया था। काॅलेज में गणतन्त्र दिवस की तैयारियाँ चल रही थीं। प्रिंसिपल साहब ने सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार कराने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी थी। आख़िरी दो पीरियड में मैं काॅलेज सभागार में छात्र–छात्राओं से सांस्कृतिक कार्यक्रम का रिहर्सल करवाता। इस बार हम लोगों ने गणतन्त्र दिवस पर वृन्दावन लाल वर्मा के लिखे नाटक मृगनयनी का मंचन करने का निर्णय लिया था। मृगनयनी की भूमिका के लिए मैंने सुजाता को चुना था। नाटक में भाग ले रहे छात्र। छात्राएँ इस नाटक को लेकर बड़े उत्साहित थे और रिहर्सल में बड़ी रुचि ले रहे थे। 

गणतन्त्र दिवस समारोह उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुआ था और इस अवसर पर हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों की सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। गणतन्त्र दिवस के अगले दिन का प्रधानाचार्य जी ने अवकाश घोषित कर दिया था। 

अवकाश के बाद जब काॅलेज खुला तो मैं नियत समय पर काॅलेज पहुँचगया। मगर आज सुजाता अपने क्लास की पंक्ति में नहीं थी। पूरे दिन मेरी निगाहें काॅलेज में हर जगह उसे ढूँढ़ती रही परन्तु वह शायद आज काॅलेज नहीं आई थी। जब लगातार तीन-चार दिन तक सुजाता नहीं आई तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। मैंने उसके क्लास की लड़कियों से उसके बारे में पूछा तो उसकी एक सहेली ने बताया कि सुजाता अब नहीं पढ़ेगी सर। उसके भाई ने उसे काॅलेज भेजने से मना कर दिया है। और लड़कियों ने भी उसकी बात की पुष्टि कर दी थी। 

मुझे उनकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सुजाता पढ़ने में बहुत तेज़ थी फिर उसके भाई ने अचानक काॅलेज भेजने से क्यों मना कर दिया, यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। 

बाद में मुझे पता चला था कि सुजाता के भाई को मेरे और सुजाता के बारे में संदेह हो गया था इसलिए उसने सुजाता को आगे पढ़ाने से साफ़ इनकार कर दिया था। 

मैं सुजाता के भाई से मिला और सुजाता को काॅलेज भेजने को कहा, पर वह नहीं माना। मैंने उसे हर तरह से समझाने की भरपूर कोशिश की मगर वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। 

अब मेरा मन काॅलेज में नहीं लगता। एक अजीब सी बेचैनी मैं अपने अन्दर महसूस करता। बार-बार मेरी निगाहें काॅलेज गेट की ओर उठ जातीं। पता नहीं क्यों मुझे लगता कि सुजाता अपना काॅलेज का बैग उठाए काॅलेज आ जाएगी। मुझे न काॅलेज में सुकून मिलता और न कमरे पर। 

मैं यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि सुख की अनुभूति मन में है किसी वस्तु में नहीं। अब मुझे झरनों, नदियों और घाटियों में न तो कोई संगीत सुनाई देता और न ही फूलों में मैं कोई ख़ुश्बू महसूस होती। वहाँ की नैसर्गिक सुन्दरता में अब मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं रह गया था। 

धीरे-धीरे मेरा मन वहाँ से उचाट हो गया और मैं दो माह का अवकाश लेकर अपने घर चला गया। फिर ग्रीष्म अवकाश में काॅलेज बन्द हो गया। इस बीच भागदौड़ करके मैंने अपना स्थानान्तरण पड़ोस के जनपद के काॅलेज में करा लिया। 

इसी बीच मेरी शादी हो गई, और मैं पूरी तरह से अपनी घर गृहस्थी में रम गया। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बहुत ख़ुश था, मगर सुजाता की एक धुँधली सी स्मृति दिल के किसी अज्ञात कोने में अब भी बसी हुई थी और जब कभी उसकी स्मृति आँखों के सामने सजीव हो उठती, मन एक अजीब बेचैनी से भर जाता। दिल में एक हूक सी उठती। 

बस तेज़ झटके के साथ रुक गई। मेरे विचारों की तन्द्रा भंग हुई और मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया। बस के कण्डक्टर ने आवाज़ लगाकर कहा, “सर काॅलेज वाला मोड़ आ गया है।” 

मैं बस से नीचे उतरा और काॅलेज की ओर चल दिया। मुझे काॅलेज पहुँचने में आधा घंटा लगा। 

जैसे ही मैं काॅलेज के मेन गेट से अन्दर घुसा मैंने देखा सामने सुजाता खड़ी थी। वही काॅलेज की चमचमाती यूनिफार्म वही दपदप करता रूप और वही आमंत्रण भरी आँखें। इन बीस वर्षों में उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया था। 

हैरानी से मैं एकटक उसकी ओर देख रहा था। 

“क्या हुआ सर! क्या आपने मुझे पहचाना नहीं,” यह कहकर सुजाता खिलखिलाकर हँसी। पहाड़ की शान्त वादियों में उसकी खनकती हुई हँसी दूर। दूर तक गूँज गई। 

“ऐसी कोई बात नहीं है,” यह कहकर मैं उसकी ओर बढ़ा मगर वहाँ कोई नहीं था। सामने खड़ा देवदार का वृक्ष मेरा मुँह चिढ़ा रहा था। मैं हतप्रभ सा खड़ा था। 

तभी मुझे किसी के आने की पदचाप सुनाई दी। मैंने आवाज़ की दिशा में देखा। काॅलेज का पुराना कर्मचारी दानू चला आ रहा था। 

“अरे साहब आप! इतने वर्षों बाद यहाँ,” दानू ने मेरे पास आते हुए कहा। 

“हाँ मैं देहरादून एक सेमिनार में आया था, सोचा यहाँ काॅलेज में सबसे मिलता चलूँ मगर लगता है काॅलेज तो आज बंद है।” 

“हाँ साहब, आज यहाँ स्थानीय अवकाश है। इसलिए काॅलेज बन्द है।” 

मैं उससे काॅलेज के पुराने साथियों के बारे में पूछता रहा। मेरे समय के एक-दो शिक्षक ही अब काॅलेज में रह गए थे बाक़ी या तो रिटायर हो गए या फिर स्थानान्तरण कराके यहाँ से चले गए थे। 

“सुजाता के बारे में नहीं पूछेंगे साहब?” दानू ने मेरी ओर देखते हुए पूछा। 

मैं शान्त खड़ा था। मुझे चुप देखकर दानू बोला साहब आपके जाने के तीन-चार महीने बाद सुजाता ने पहाड़ी से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। लोग कहते हैं कि उसकी अतृप्त आत्मा यहीं घूमती रहती है। कई लोगों ने रात के अँधेरे में उसे काॅलेज के आसपास घूमते देखा है। 

सुजाता के बारे में जानकर मन का पोर-पोर पीड़ा से भर उठा था। कुछ देर तक मैं वही सन्न सा खड़ा रहा। फिर दानू से विदा लेकर मैं वापस लौट पड़ा। 

रास्ते में मैं सोचने लगा कि अभी थोड़ी देर पहले मैंने जिसे देखा था वह क्या था सुजाता की अतृप्त आत्मा या मेरे मन में बसी हुई उसकी स्मृतियों की परिणति, मेरे मन का बहम या फिर मेरी आँखों का भ्रम; मैं कुछ निश्चय नहीं कर पाया था और बोझिल मन तथा थके हुए क़दमों से बस की ओर चल दिया था। 

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टिप्पणियाँ

डॉ०विजयानन्द 2022/09/03 11:17 AM

आप देश में रहकर बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। इससे हिंदी का सम्मान बढ़ता है। मेरे नंबर पर आप अपना परिचय भेजने का कष्ट करें, जिससे आपको भारत की संस्थाओं से भी जोड़ा जा सके । - डॉ विजयानन्द राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष -अखिल भारतीय हिन्दी महासभा, विश्व हिंदी महासभा ,नई दिल्ली मोबाइल नंबर-09335138382

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