अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

विश्व प्रसिद्ध लिपि विशेषज्ञ बापू वाकणकर

 

दुनिया भर में लिपि विशेषज्ञ के नाते प्रसिद्ध श्री लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर लोगों में बापू के नाम से जाने जाते थे। उनके पूर्वज बाजीराव पेशवा के समय मध्य प्रदेश के धार नगर में बस गये थे। उनके अभियन्ता पिता जब गुना में कार्यरत थे, उन दिनों 17 सितम्बर, 1912 को बापू का जन्म हुआ था। 

ग्वालियर, नीमच व धार में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर बापू इंदौर आ गये। यहाँ उनका परिचय कई क्रांतिकारियों से हुआ। वे जिस अखाड़े में जाते थे, उसमें अगस्त 1929 में संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार आये थे। यहाँ पर ही मध्य भारत की पहली शाखा लगी, जिसमें बापू भी शामिल हुए थे। इस प्रकार वे प्रांत की पहली शाखा के पहले दिन के स्वयंसेवक हो गये। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा क्रांतिकारियों से बढ़ते सम्बन्धों से चिंतित पिताजी ने उन्हें अभियन्ता की पढ़ाई करने मुंबई भेज दिया। वहाँ उनका आवास बाबाराव सावरकर के घर के पास था। इससे उनके मन पर देशभक्ति के संस्कार और दृढ़ हो गये। पुणे में लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित केसरी समाचार पत्र के कार्यालय में पत्रकारिता का अध्ययन करते समय 1935 में उन्होंने संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। निशानेबाज़ी एवं परेड में वे बहुत विज्ञ थे। इसके बाद उज्जैन आकर उन्होंने दशहरा मैदान में शाखा प्रारम्भ की। 

बापू वाकणकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी शिक्षा पाई थी। वहाँ उनके गुरु प्रो. गोडबोले तथा श्री गोलवलकर ने उनके मन में स्वदेशी का भाव भरा। इससे प्रेरित होकर उन्होंने ‘आशा’ नामक उद्योग स्थापित कर सुगन्धित द्रव्य तथा दैनिक उपयोग की कई चीज़ें बनाईं। ये उत्पाद इतने अच्छे थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय विदेशी भी उन्हें ख़रीदने को लालायित रहते थे। 

यह काम एक युवा उद्यमी को देकर बापू ने सिरेमिक्स के छोटे बर्तनों पर छपाई की सुगम तकनीक विकसित की। फिर इसे भी एक सहयोगी को देकर भारतीय लिपियों को संगणक (कम्प्यूटर) पर लाने के शोध में लग गये। उनकी प्रतिभा देखकर केन्द्र शासन ने उन्हें ‘लिपि सुधार समिति’ का सदस्य बना दिया। फिर भूटान, सिक्किम और श्रीलंका सरकार के आमन्त्रण पर उन्होंने वहाँ की स्थानीय लिपियों को भी सफलतापूर्वक कम्प्यूटरीकृत किया। 

इसके बाद संगणक निर्माण में अग्रणी जर्मनी तथा डेनमार्क ने उन्हें अपने यहाँ बुलाया। उनके शोध की उपयोगिता देखकर बड़ोदरा के उद्योगपति श्री अमीन ने उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता देकर पुणे में अंतरराष्ट्रीय लिपि के क्षेत्र में शोध को कहा। इस प्रकार ‘इंटरनेशनल टायपोग्राफी इंस्टीट्यूट’ की स्थापना हुई। यहाँ ‘अक्षर’ नामक प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ। बापू के प्रयास से भारतीय लिपि के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। विश्व की अनेक भाषा एवं लिपियों के ज्ञाता होने से लोग उन्हें ‘अक्षरपुरुष’ और ‘पुराणपुरुष’ कहने लगे। 

पद्मश्री से अलंकृत उनके छोटे भाई डा। विष्णु श्रीधर वाकणकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरातत्ववेत्ता थे। उन्होंने उज्जैन में इतिहास संबंधी शोध के लिए ‘वाकणकर शोध संस्थान’ स्थापित किया था। 1988 में उनके असमय निधन के बाद बापू उज्जैन में रहकर उनके अधूरे शोध को पूरा करने लगे। उन्होंने सरस्वती नदी के लुप्त यात्रा पथ को खोजने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बापू ने गणेश जी की स्तुति में रचित ‘अथर्वशीर्ष’ नामक स्तवन का अध्ययन कर यह बताया कि आद्य अक्षर ‘ओम्’ में से लिपि का उदय कैसे हुआ है? 

आज संगणक और उसमें भारतीय भाषा व लिपियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। इसे पर्याप्त समय पूर्व पहचान कर, इसके शोध में जीवन समर्पित करने वाले श्री वाकणकर का 15 जनवरी, 1999 को उज्जैन में ही निधन हुआ।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

ऐतिहासिक

बात-चीत

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं