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वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. बीना शर्मा जी से बात-चीत 

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा की निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. बीना शर्मा, बरेली एक सेमिनार में भाग लेने आईं। सेमिनार का विषय था—भविष्य की हिन्दी एवं हिन्दी का भविष्य ‘एक चिन्ता और चिन्तन’। सेमिनार के उपरान्त साहित्य भूषण सुरेश बाबू मिश्रा ने साहित्य के विविध पहलुओं पर डॉ. बीना शर्मा से लम्बी बातचीत की। यहाँ प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश:

 

सुरेश बाबू मिश्रा–

बरेली में आपका स्वागत है आदरणीया। यह बताइए कि लोक, आधुनिकता और संस्कृति में समन्वय कितना आवश्यक है और हमारी वर्तमान पीढ़ी को इसमें सामंजस्य किस प्रकार बिठाना चाहिए? 

डॉ. बीना शर्मा–

लोक, आधुनिकता और संस्कृति की जड़ें व्यक्ति के मानस में गहरी धँसी होती हैं। आधुनिकता के संजाल में फँसकर आज व्यक्ति लोक की उपेक्षा कर रहा है और इस तरह धीरे-धीरे अपनी संस्कृति से दूर हो रहा है। जहाँ तक वर्तमान पीढ़ी की बात है उसे लोक और संस्कृति का अक्षर ज्ञान भी नहीं। वह केवल आधुनिकता के नाम पर परोसे जा रहे फूहड़पन को ही अपनी धरोहर समझता है। आयातित पाश्चात्य संस्कृति को ही वह अपना सर्वस्व मानने की भूल कर बैठा है। दुख इस बात का है कि वह अपने लोक और संस्कृति को शनैः-शनैः भूलता जा रहा है। लोक मंगल के पर्वों को भूलना इस बात का प्रमाण है कि वर्तमान पीढ़ी आधुनिकता की दौड़ में इतनी आगे जा चुकी है कि उसके लिए पीछे लौटना असंभव सा है। इसमें सबसे बड़ी भूल उन माता-पिता और अभिभावकों की है जो आधुनिकता के मकड़ जाल में फँसकर अपने बच्चों को पश्चिम की ओर ललचा रहे हैं और आश्चर्य इस बात का है कि इसमें उनका सीना गौरव से चौड़ा हो उठा है। वृद्धाश्रम लोक और संस्कृति का हिस्सा नहीं। हाँ, वानप्रस्थ को अवश्य इससे जोड़ा जा सकता है। पर आज व्यक्ति वानप्रस्थी तो नहीं ही हो पाया। हाँ, उसे वृद्धाश्रम भेजे जाने का दौर जारी है। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

अब बात करते हैं संस्थान की गतिविधियों की। संस्थान हिंदी और हिंदीतर प्रदेशों में नवीन गतिविधियाँ क्या कर रहा है? वह अपने प्रकाशनों को अलग-अलग विश्वविद्यालयों में किस प्रकार ले जा रहा है? जिससे वह युवा पीढ़ी तक पहुँचे और युवा पीढ़ी को एक दिशा मिले। 

डॉ. बीना शर्मा–

संस्थान की गतिविधियाँ बहुआयामी हैं। संस्थान का क्षेत्र ही हिंदीतर प्रदेश और विश्वविद्यालय की भूमि है। हिंदीतर प्रदेशों के लिए हिंदी शिक्षक तैयार करना, उन शिक्षकों को समय-समय पर नवीनीकृत करने के लिए पुनश्चर्या/नवीकरण पाठ्यक्रम का आयोजन, देश भर के हिंदीतर अध्यापकों और अध्येताओं के लिए शिक्षणपरक सामग्री का निर्माण, सांध्यकालीन पाठ्यक्रम, पत्रकारिता, अनुवाद और भाषाविज्ञान के पाठ्यक्रमों का आयोजन, विदेशी अध्येताओं को हिंदी सिखाने के लिए मुख्यालय और दिल्ली केंद्र में कक्षाओं का संचालन, केंद्रों और मुख्यालय से शिक्षा और साहित्य, भाषा और पत्रकारिता विषयक आठ पत्रिकाओं का प्रकाशन, अध्येता कोश और विश्वकोश का निर्माण और प्रकाशन, विभागीय पत्रिकाओं, संस्थान समाचार का प्रकाशन जैसे-जैसे अन्य बहुत से उपक्रम हैं जिनका संचालन संस्थान करता है। संस्थान के प्रकाशन हिंदीतर प्रदेशों और शैक्षिक संस्थानों/विश्वविद्यालयों में ख़ूब प्रसार कर रहे हैं। चूँकि यह सारा आयोजन चाहे शिक्षण-प्रशिक्षण, नवीकरण और प्रकाशन ही क्यों न हो। युवा पीढ़ी के लिए है तो निश्चित रूप से युवा पीढ़ी के भविष्य की दिशा का निर्धारण क्षेत्र हिंदी संस्थान विभिन्न कार्यक्रमों से निर्धारित करता है। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

संस्थान निरंतर हिंदी के विकास और संवर्धन के लिए विदेशों में भी प्रयास सफलतापूर्वक कर रहा है, कोई ऐसी उल्लेखनीय उपलब्धि बताइए जिससे हम सब प्रेरणा ले सकें? 

डॉ. बीना शर्मा–

द्वितीय और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी के विकास एवं प्रचार हेतु संस्थान निरंतर जुटा हुआ है। केवल हिंदीतर क्षेत्र ही नहीं, विदेशों में भी इसकी धूम है। इसका सबसे ताज़ा-तरीन उदाहरण यह है कि भारत के 17-18 प्रांतों के विद्यार्थी शिक्षण-प्रशिक्षण परक पाठ्क्रमों डी.एल.एड., बी.एड. और एम.एड. में अध्ययनरत हैं तथा विभिन्न केंद्रों के माध्यम से इन हिंदीतर शिक्षकों को अद्यतन किया जाना लगातार जारी है। साथ ही मुख्यालय आगरा में 12 देशों के 54 विद्यार्थी एवं दिल्ली केंद्र में 5 देशों के 19 विद्यार्थी हिंदी अध्ययन में रत हैं। श्रीलंका के कोलंबों और कैंडी में संस्थान संचालित करते हैं। इस शिक्षण को ऑनलाइन रूप में संचालित कर संपूर्ण विश्व को इससे जोड़ने की दिशा में संस्थान प्रगतिशील है। संस्थान चूँकि बहुआयामी दृष्टियों से काम करता है, इसलिए संस्था की सभी उपलब्धियाँ विशेष होती हैं। इसे संख्या की दृष्टि से सीमित नहीं किया जा सकता। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

“सफ़र जारी है” यह आपकी एक बहुत लोकप्रिय लेख या ललित निबंध शृंखला है। अब तक इसके कितने खंड प्रकाशित हो चुके हैं और यह यात्रा कहाँ तक जाएगी? 

डॉ. बीना शर्मा–

व्यक्तिगत लेखन को लेकर मेरा मानना है कि एक रचनाकार का लेखन कभी व्यक्तिगत नहीं हो सकता क्योंकि वह समाज के बीच से ही विषय चुनता है और उसी को लेखन का रूप देता है। जीवन के साठ वर्ष पूरे करने के पश्चात मुझे भी इस बात का इलहाम हुआ कि अपने जीवन के अनुभवों को अपने आसपास बिखरे मित्रों, संबंधियों, विद्यार्थियों के मध्य बाँटना ही चाहिए। इसी कर्म का रूप ‘सफ़रनामा’ भाग 1 से 4 तक है जो एक वर्ष के लिए संकल्पित था, तैयार हुआ और इसकी समाप्ति पर इष्ट मित्रों और गुरुजनों के लगातार आग्रह से इसे ‘सफ़र जारी है’ के नाम से जारी रखा गया। इसके दस अंक आ चुके हैं, ग्यारहवाँ प्रेस में है और बारहवाँ लिखा जा रहा है। इस यात्रा का अंत कहाँ होगा और कब? इस विषय में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह यात्रा मेरे जीवन तक के लिए संकल्पित है तो जितना ईश्वर लिखवाना चाहेगा, लिखा ही जाएगा। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

आपके लिखने की शैली बिल्कुल ऐसी है जैसे हमारे घरों में हमारे प्रियजन या हमारे शिक्षा केंद्रों में प्रबुद्धजन की है। वह आपसी बातचीत में संदेश भी दे जाते हैं और सामने वाले को पता भी नहीं चलता कि वह शिक्षित हो गया, संस्कारित हो गया। आपसे अब प्रतिदिन के संस्मरण लेखन के अलावा एक बड़े उपन्यास या एक आत्मकथा की अपेक्षा हिंदी साहित्य जगत को है इस पर आपका क्या विचार है? 

डॉ. बीना शर्मा–

हाँ, मेरे लिखने की शैली सच में बातचीत वाली है, क्योंकि मुझे बहुत अधिक वितान तानना नहीं आता। जो है, उसे सरल और स्पष्ट शब्दों में कम से कम वाक्यों में लिख डालती हूँ क्योंकि मेरी दृष्टि में शब्द ब्रह्म हैं और जो ब्रह्म हैं उसके प्रयोग में तो सावधानी बरती ही जानी चाहिए। मेरे लेख से जो संदेश जाता है, संस्कार जाते हैं, मैं इसे भी अपनी उपलब्धि नहीं गिनती, इसे भी प्रभु चरणों में समर्पित कर देती हूँ। संस्मरण लेखन के इतर बात उपन्यास या आत्मकथा की आवश्यकता की है तो हिंदी साहित्य जगत को इसकी आवश्यकता है और इतना तो निश्चित है कि मेरे पास इस कार्यक्रम की बहुत सारी योजनाएँ हैं लेकिन मैं यह नहीं जानती कि इस सबको अमली जामा पहनाने के लिए कितना समय शेष है। उपन्यास और आत्मकथा ही क्यों, मुझे तो अभी बहुत से विषयों पर लिखना है जिससे भारतीय सांस्कृतिक प्रतीक जिसका केवल अभी पहला भाग ही प्रकाशित हो सकता है, उसे पूरा करना है। देश की आधी आबादी की जो पीड़ा है, उसे स्वर देना है और सच कहूँ तो इतना सारा जो मन में उमड़ता रहता है उसे शब्दों में बाँधे बिना मन को चैन कहाँ आता है। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

देश में और एक शिक्षा केंद्र की निदेशक होने के नाते आप भावी पीढ़ी में युवाओं में पढ़ने विचार-विमर्श करने के क्या संस्कार देखती हैं? 

डॉ. बीना शर्मा–

योजनाएँ तो काफ़ी हैं, देखना यह बाक़ी है कि उसमें से कितनी हो पाती हैं। जहाँ केन्द्रीय हिन्दी संस्थान देश और विदेश में अपनी ख़ास पहचान और विशिष्ट योगदान रखता है, वहीं एक ऐसे शिक्षा और भाषा के केंद्र के शीर्षस्थ नेतृत्व के रूप में निदेशक होने के नाते मेरा दायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है कि मैं आने वाली पीढ़ी में शिक्षा के वे संस्कार बो सकूँ जिनसे हमारा राष्ट्र मज़बूत हो। और जैसी पढ़ाई की जा रही है, जिन उपाधि और उपलब्धियों के पीछे युवा पीढ़ी के पैर ज़मीन पर टिके हुए ही नहीं हैं, उसे केवल पैसे-पैसे और पैसे दिखते हैं। तरक़्क़ी और उन्नति के नाम पर विदेशी कंपनियाँ दिखती हैं। अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेज वे निश्चिंत हो लेते हैं। भाई-बहनों से एक विशेष दूरी बनाते हुए अपने आँगन में सुख के क्षण ढूँढ़ते हैं। आपको नहीं लगता कि ये सब कितना बेमानी है। मुझे तो जहाँ, जैसे और जब अवसर मिलता है, मैं अपनी ओर से अपना पूरा सामर्थ्य लगाकर उन्हें समझाने, उन्हें संस्कारित करने, उनमें भारतीयता का बीज बोने तथा उन्हें सत्य की राह दिखाने का कोई अवसर नहीं चूकती। फिर चाहे वह पढ़ाने-लिखाने से संबधित हो, सभा में वक्तव्य देना हो अथवा उन्हें उपदेश की भाषा में कुछ समझाना क्यों न पड़े। सिखाया भी हमें यह गया है कि अपनी ओर से पूरी मेहनत और शिद्दत से काम करो और परिणाम ईश्वर के ऊपर छोड़ दो। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

कोई विशेष बात अपनी तरफ़ से आप कहना चाहें हमारे साहित्यकारों को किन विषयों पर वह लेखन से बच रहे हैं जिन पर लिखने की ज़रूरत है? 

डॉ. बीना शर्मा–

हाँ, मुझे साहित्यकारों से एक बात ज़रूर कहनी है कि किसी निर्धारित पाठ्यक्रम के लिए परीक्षा में उत्तीर्ण होने की दृष्टि से जो लिखा जाता है, वह तो ज़रूरी है ही, परन्तु इससे इतर उन मूल्यों और संभावनाओं पर लिखा जाना भी बहुत ज़रूरी है जो साहित्य का मूल हैं। जिसे देखो कहानी और कविताओं में अपना हाथ आज़मा रहा है। नैतिक साहित्य की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता जबकि सच तो यह है जो पढ़ा जाता है, वह मस्तिष्क को प्रभावित करता है और हमारी पीढ़ी धीरे-धीरे एक ऐसे साहित्य को पढ़ने की आदी होती जा रही है जिसकी ज़रूरत उसे केवल परीक्षा पास करने के लिए होती है। मल्टीमीडिया की बात करें तो इस युग में हर तीसरे के हाथ में स्मार्ट फोन है जो केवल गुड मोर्निंग और अग्रेषित संदेशों से भरा रहता है, जिसे दिन-रात देखा जाता है, लाइक, नीले निशान और कमेंट पर सारी दृष्टि लगी रहती है। अब सोचो यदि स्मार्ट फोन ज़िन्दगी को बदलने में इतनी बड़ी भूमिका रखता तो उसका प्रयोग एक सार्थक साथी के रूप में क्यों न कर लिया जाए? बस इतना ही तो करना है हमें। जैसे जो चाहते हैं, उसे संवाद के रूप में चिट्ठी-पत्री के रूप में, कथा-कहानी के रूप में अपने लोगों के मध्य प्रचारित-प्रसारित करें। लेकिन हम ऐसा कहाँ सोचते हैं। हमें रेन-रेन गो अवे या जाॅनी-जाॅनी यस पापा से ही मुक्ति नहीं मिलती। आज देश-भक्ति की कविताएँ, चिंतन मनन की सामग्री, भजन सद्ग्रंथों के पठन-पाठन की आदत अपने अध्येताओं में डाल पायें। इसकी ओर कोई पहल नहीं हो रही है। मेरा आज के साहित्यकारों से विनम्र निवेदन है कि वे इस पर गंभीरता से विचार करें और कोशिश करें कि जो लिखा जाए, वह पढ़ा भी जाए, जो पढ़ा जाए, उसे समझा भी जाए और समझ में आ जाए, उसे व्यवहार में लाया जाए। 

सुरेश बाबू मिश्रा–

धन्यवाद आदरणीया। हिंदी साहित्य के प्रासंगिक पहलुओं पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए आपका हार्दिक आभार। 

सुरेश बाबू मिश्रा
साहित्य भूषण

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