अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पथराई आँखें

 

पूरे क़स्बे में यह ख़बर फैल गई थी कि दान सिंह की बारात लौट आई है और वह अपनी बहू को लेकर आ गया है। छोटा सा पहाड़ी क़स्बा बमुश्किल दो सौ मकान, आठ-दस दुकानें एक इण्टर कॉलेज और ब्लॉक कार्यालय बस यही सब मिलकर वह क़स्बा बनता था। सभी एक-दूसरे से परिचित थे और सभी एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होते थे। 

ख़बर सुनते ही क़स्बे की औरतें अपने-अपने काम छोड़कर दान सिंह के यहाँ पहुँचना शुरू हो गई थीं। देखते ही देखते वहाँ औरतों का जमघट लग गया था। सबके मन में दान सिंह की बहू को देखने की गहरी उत्सुकता थी। 

सभी रस्में पूरी करने के बाद दान सिंह की माँ अपनी बहू को सबके सामने लेकर आई। बहू की सुन्दरता देख सारी औरतें उसे अपलक निहार रही थीं। वह बहुत सुन्दर थी। माँ के इशारे पर उसने बड़ी श्रद्धा से क़स्बे की सारी औरतों के पैर छुए। बहू की सुन्दरता और शालीनता ने सभी औरतों का मन मोह लिया। सभी औरतों ने बहू को जी भर कर आशीषें दीं। औरतों ने दान सिंह की माँ को बधाई देते हुए कहा, “बहुत सुन्दर और सुशील बहू लेकर आया है तुम्हारा बेटा दान सिंह। वह हमारे क़स्बे की अब तक की सबसे सुन्दर बहू है।” दानसिंह की माँ ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हो गई थीं।

दान सिंह रजनी जैसी ख़ूबसूरत पत्नी पाकर बेहद ख़ुश था। रजनी घरेलू कामों में भी बहुत निपुण थी। इतना स्वादिष्ट खाना बनाती कि सब उँगलियाँ चाटते रह जाते। दान सिंह का परिवार बहुत छोटा था। वह, उसकी बड़ी बहिन लक्ष्मी और माँ जब दान सिंह आठ वर्ष का था तभी उसके पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। माँ ने ही उसे पाला-पोसा था। लक्ष्मी की शादी हो चुकी थी और वह अपनी ससुराल में रहती थी। 

अपनी शादी के बाद पहली बार लक्ष्मी अपने भाई की शादी में दस दिन अपने मायके में रुकी। रजनी ने अपने व्यवहार और आत्मीयता से लक्ष्मी का दिल जीत लिया। वह रजनी जैसी सुन्दर और प्यार करने वाली भाभी पाकर बड़ी ख़ुश थी। दान सिंह की माँ अपनी बहू को आशीषें देती नहीं थकती। 

दान सिंह क़स्बे के इण्टर कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था। उसके वेतन से घर का ख़र्चा आराम से चल जाता था। हँसी-ख़ुशी के बीच कब आठ साल गुज़र गए कुछ पता ही नहीं चला। अब दान सिंह दो बेटों का पिता बन चुका था। बड़ा बेटा करन सिंह पाँच साल का और छोटा बेटा रमन सिंह तीन साल का हो गया था। दोनों दादी-दादी करके दान सिंह की माँ के पीछे-पीछे दौड़ते तो वे फूली नहीं समाती। घर में बच्चों की हँसी और किलकारियाँ गूंजतीं रहती। बड़ी हँसी-ख़ुशी के साथ दिन बीत रहे थे। 

फिर एक दिन दान सिंह की माँ इस दुनिया से चल बसी। रजनी का रो-रोकर बुरा हाल हो गया था। कई दिनों तक रिश्तेदार एवं क़स्बे के लोगों का आना-जाना लगा रहा। रजनी को अपनी सास की कमी बहुत खलती। कई दिनों तक वह बहुत गुमसुम-सी रही। कहते हैं कि समय का मरहम बड़े-बड़े से घाव को भर देता है। धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया और ज़िन्दगी फिर से पुराने ढर्रे पर चल निकली। 

एक दिन रजनी ने दान सिंह से कहा कि वह आगे पढ़ना चाहती है। यह सुनकर दान सिंह बड़ा ख़ुश हुआ। रजनी हाईस्कूल पास थी। दान सिंह ने अपने कॉलेज से ही रजनी का इण्टर का प्राइवेट फ़ॉर्म भरवा दिया और उसे किताबें लाकर दे दीं। 

रजनी को पढ़ने में बड़ी रुचि थी। वह घर का सारा काम निपटाने के बाद पढ़ने बैठ जाती और देर रात तक पढ़ती रहती। बच्चों का और दान सिंह का वह पहले की तरह ही पूरा ख़्याल रखती। 

धीरे-धीरे परीक्षा पास आ गई। रजनी ने परीक्षा के लिए दिन-रात एक कर दिया। जब परीक्षा का परिणाम जारी हुआ तो रजनी सेकेण्ड डिवीज़न पास हुई थी। रजनी और दान सिंह की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। 
रजनी की आगे पढ़ने की इच्छा और बलवती हो गई थी। उस क़स्बे में इण्टर तक की शिक्षा की ही व्यवस्था थी। रजनी के आग्रह पर दान सिंह ने ज़िला मुख़्यालय के कॉलेज से उसका बी.ए. प्रथम वर्ष का प्राइवेट फ़ॉर्म भरवा दिया। रजनी पर पढ़ाई की धुन कुछ इस तरह सवार थी कि उसने बिना किसी ट्यूशन के तीन साल में अच्छे नम्बरों के साथ बी.ए. उत्तीर्ण कर लिया। 

बच्चे अब बड़े हो गए थे और कॉलेज जाने लगे थे। रजनी घर के कामों और बच्चों की देखभाल में कोई कोताही नहीं बरतती थी। दान सिंह का भी वह पूरा ख़्याल रखती। इस सबसे दान सिंह का रजनी के प्रति प्रेम और प्रगाढ़ हो गया था। 

एक शाम बातों ही बातों में रजनी ने दान सिंह से कहा कि वह बी.टी.सी. करना चाहती है। पहले तो दान सिंह आना-कानी करने लगा। वह रजनी को बाहर भेजने के लिए तैयार नहीं था, मगर रजनी द्वारा काफ़ी मान-मनौव्वल करने तथा काफ़ी समझाने के बाद वह उसे बी.टी.सी. कराने के लिए तैयार हो गया। 

दान सिंह के कॉलेज में ज़िले के शिक्षा अधिकारी आते-जाते रहते थे। दान सिंह उनकी बड़ी सेवा करता था इसलिए सब दान सिंह से बड़े ख़ुश रहते थे। दान सिंह ने अधिकारियों की बड़ी ख़ुशामद करके रजनी का एडमीशन बी.टी.सी. में करा दिया। उस समय बी.टी.सी. में प्रवेश के लिए आजकल जैसी मेरिट नहीं बनती थी। इसलिए अधिकारियों की सिफ़ारिश काम कर जाती थी। 

रजनी का एडमीशन पड़ोस के ही मैदानी ज़िले की डाइट में हुआ था। अब दो साल रजनी को वहीं रहना था। दान सिंह उसके साथ गया और भाग-दौड़ करके एक परिवार में उसे कमरा किराए पर दिला दिया। रजनी वहीं रहकर बी.टी.सी. की पढ़ाई करने लगी। वह हर शनिवार की शाम को घर आ जाती और सोमवार सुबह जल्दी वापस लौट जाती। रविवार को वह सबके लिए कोई न कोई ख़ास व्यंजन बनाती। वह दिन भर काम में लगी रहती और बच्चों तथा दान सिंह के लिए हमेशा कुछ न कुछ बनाकर रख जाती। 

अब दान सिंह पर घर के काम का बोझ बढ़ गया था। बच्चे भी बड़े हो गये थे और वे दान सिंह का हाथ बँटाने लगे थे। धीरे-धीरे दो साल गुज़र गए और बी.टी.सी. करने के बाद रजनी घर लौट आई। 

रजनी के लौट आने से परिवार में फिर हँसी-ख़ुशी का माहौल बन गया था। दान सिंह ख़ुद केवल कक्षा आठ पास था मगर उसे इस बात पर बड़ा गर्व होता था कि उसकी पत्नी ने बी.टी.सी. कर ली है और एक-दो साल बाद वह टीचर बन जायेगी। 

रजनी फिर से अपनी घर-गृहस्थी में रम गई थी। उसकी दुनिया तो बस अपने बच्चों और अपने पति दान सिंह तक सीमित थी। इनकी ख़ुशी के लिए वह दिन रात काम में जुटी रहती। बड़ी हँसी ख़ुशी के साथ समय गुज़र रहा था। ऐसे में ही एक दिन डाक से रजनी का नियुक्ति पत्र आ गया। जहाँ से उसने बी.टी.सी. की थी उसी मैदानी ज़िले में उसकी नियुक्ति टीचर के रूप में बेसिक स्कूल में हुई थी। नियुक्ति पत्र देखकर दान सिंह की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था। वह अपने कॉलेज में और आस-पड़ोस में सबको बता आया था कि उसकी पत्नी रजनी टीचर बन गई है। मगर रजनी ज़्यादा ख़ुश नहीं थी। उसने दान सिंह से कहा कि तुम सबको छोड़कर मैं इतनी दूर नौकरी करने नहीं जाऊँगी। ट्रेनिंग की बात और थी केवल डेढ़-दो साल रहना था, मगर अब तो पता नहीं कितने साल वहाँ अकेले रहना पड़े। ऐसी नौकरी से क्या फ़ायदा जो पति और बच्चों से ही दूर कर दे।”

दान सिंह ने उसे समझाया कि देखो बच्चे बड़े हो गए हैं आगे दोनों को अच्छी शिक्षा दिलाकर बड़ा आदमी बना सकें इसके लिए तुम्हारा नौकरी करना ज़रूरी है। दान सिंह के बहुत समझाने-बुझाने के बाद किसी तरह रजनी नौकरी करने के लिए तैयार हुई थी। दान सिंह ख़ुद उसे वहाँ छोड़ने गया। संयोग से पुराने मकान मालिक के यहाँ ही एक कमरा ख़ाली मिल गया। रजनी वहाँ रहकर नौकरी करने लगी। 

समय का पंछी पंख लगाकर उड़ता जा रहा था। रजनी को सर्विस करते-करते आठ साल हो गए थे। बच्चे बड़े हो गए थे। एक बी.टेक. कर रहा था और दूसरा बी.एससी. दान सिंह बड़ा ख़ुश था। 

इधर कुछ दिनों से दान सिंह रजनी के व्यवहार में एक अजीब सा परिवर्तन अनुभव कर रहा था। अब वह अपने कपड़े अैर बनाव, शृंगार पर ज़्यादा ध्यान देने लगी थी। वह दान सिंह से कुछ खिंची-खिंची सी रहती। 

पिछले तीन रविवार बीत गए थे रजनी घर नहीं आई थी। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था इसलिए दान सिंह को बड़ी चिन्ता हो रही थी। उसने सोचा कि सर्विस का मामला है हो सकता है कि कोई ज़रूरी काम की वजह से नहीं आ पाई हो। जब चौथे रविवार को भी रजनी नहीं आई तो दान सिंह बहुत परेशान हो उठा। 

उस समय आज की तरह मोबाइल की सुविधा नहीं थी। कुछ सम्पन्न लोगों के यहाँ या बड़े दफ़्तरों में टेलीफोन लगे थे इसलिए डाक के अलावा हाल-चाल जानने का और कोई साधन नहीं था। दान सिंह ने रजनी के मकान मालिक के पते पर पत्र भेजकर रजनी से शीघ्र घर आने के लिए लिखा। 

जब पत्र का भी कोई जवाब नहीं आया तो दान सिंह को रजनी की बहुत चिन्ता होने लगी और वह महानगर जा पहुँचा। वह सीधे रजनी के कमरे पर पहुँचा, मगर रजनी वहाँ नहीं थी। मकान मालिक ने रुखे स्वर में कहा, “रजनी अब यहाँ नहीं रहती है उसने तो दूसरा कमरा किराए पर ले लिया है।” आज दान सिंह को मकान मालिक का व्यवहार कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। दान सिंह के बहुत मिन्नतें करने पर उन्होंने रजनी के नये मकान का पता बताया था। 

दान सिंह पता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहाँ जा पहुँचा। रजनी उस समय कमरे पर नहीं थी। वह कहीं गई हुई थी। दान सिंह वहीं बैठकर रजनी का इंतज़ार करने लगा। काफ़ी देर बाद रजनी आई। उसके साथ एक आदमी था जिससे रजनी ख़ूब हँस-हँसकर बातें कर रही थी। उसकी उम्र दान सिंह से आठ-दस साल कम रही होगी और वह देखने-भालने में बड़ा हैण्डसम था। 

अचानक दान सिंह को देखकर रजनी का चेहरा फक पड़ गया। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा रंग जा रहा था। 

दान सिंह बोला, “तुम कैसी हो रजनी? मुझे तुम्हारी बड़ी चिन्ता हो रही थी।” रजनी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

“तुम इतने दिन से घर क्यों नहीं आईं रजनी?” दान सिंह ने उसकी ओर देखते हुए पूछा। 

रजनी ने अब अपनी घबराहट पर क़ाबू पा लिया था। वह दान सिंह की ओर देखते हुए रुखे स्वर में बोली, “घर कैसा घर? मैं अब वहाँ कभी नहीं आऊँगी।”

दान सिंह को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने सोचा कि रजनी शायद मज़ाक़ कर रही है। वह रजनी के चेहरे की ओर देखते हुए बोला, “ऐसा क्यों कह रही हो रजनी?”

“क्योंकि वह घर अब मेरा नहीं रहा। यह संजीव है और हम दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली है,” रजनी ने सपाट स्वर में कहा। 

“क्या?” हैरत से दान सिंह कभी रजनी को देख रहा था तो कभी संजीव को। उसे सपने में भी गुमान नहीं था कि रजनी ऐसा गुल खिलाएगी। 

इसके बाद दान सिंह ने रजनी को मनाने, घर ले जाने की हर सम्भव कोशिश की। उसे बच्चों की ममता का भी वास्ता दिया, मगर रजनी पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा उस पर तो संजीव के प्यार का रंग चढ़ा हुआ था इसलिए वह किसी भी क़ीमत पर दान सिंह के साथ घर जाने को तैयार नहीं हुई। दान सिंह को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि क्या यह वही रजनी है जो एक पल के लिए भी उससे दूर नहीं रहना चाहती थी। 

अन्त में रजनी ने एक ऐसी बात कह दी जिसने दान सिंह के दिल को चीर कर रख दिया था। वह बोली, “मुझे तो यह बताते बड़ी शर्म आती थी कि मेरे पति एक चपरासी हैं।”

यह सुनकर दान सिंह काफ़ी देर तक बुत बना वहाँ खड़ा रहा, फिर बिना एक शब्द कहे वह वहाँ से चला आया। दान सिंह के बेटे अपनी माँ को बहुत प्यार करते थे। जब उन्हें पता चला तो वे भी अपनी माँ को मनाने उनके पास गए, मगर रजनी ने दो टूक कह दिया कि वह अब किसी से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। उसकी आँखों पर तो संजीव के प्यार का चश्मा लगा हुआ था इसलिए वह अपने निर्णय पर अडिग रही बच्चों की ममता से भी उसका दिल नहीं पसीजा। 

इस घटना को बीस साल बीत गए थे। रजनी की बेवफ़ाई से दान सिंह बुरी तरह टूट गया था। उसके दिल का चमन उजड़ चुका था। लाख कोशिश के बाद भी वह रजनी के प्यार को भूल नहीं पाया था। हर समय मुस्कुराते रहने वाला दान सिंह बिल्कुल गुमसुम सा रहने लगा। उसका बड़ा बेटा इंजीनियर बन गया था और छोटा प्रोफ़ेसर। दोनों चाहते थे कि पापा उनके पास आकर रहें। मगर दान सिंह अपने घर को छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि उस घर से रजनी की यादें जुड़ी हुई थीं। ग़म को भुलाने के लिए वह शराब पीने लगा था, मगर शराब के नशे में भी रजनी की यादें उसका पीछा नहीं छोड़तीं। 

दान सिंह अट्ठावन साल का हो गया था। उसके रिटायरमेन्ट में अब केवल दो साल रह गये थे। वह बिल्कुल बूढ़ा लगने लगा था। कॉलेज बन्द हो जाने के बाद भी वह कभी-कभी घन्टों कॉलेज में बैठा रहता। 

शाम के पाँच बज गये थे। सब लोग कॉलेज से जा चुके थे। मगर रोज़ की भाँति आज भी दान सिंह कॉलेज में ही बैठा हुआ था। वह जाने किन विचारों में खोया हुआ था, तभी उसने कॉलेज के गेट में किसी व्यक्ति को घुसते देखा। इस समय कौन हो सकता है वह सोच में पड़ गया। चारों ओर हल्का सा धुँधलका सा छाने लगा था इसलिए दान सिंह उसे पहचान नहीं पाया। वह धीरे-धीरे चलता हुआ दान सिंह के पास आकर रुक गया। 

दान सिंह ने जब ग़ौर से उसके चेहरे की ओर देखा तो वह चौंक गया। वह रजनी थी। कभी बेहद सुन्दर लगने वाली रजनी का चेहरा सूख कर काला पड़ चुका था। उसका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र लग रहा था। 

इससे पहले कि दान सिंह कुछ कहे रजनी बोली, “मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा मिल चुकी है। मैं अपने साथ हुए विश्वासघात और ज़ुल्मों की कहानी सुनाकर आपके दिल को दुखाना नहीं चाहती।” 

“फिर अब तुम यहाँ मेरे पास क्या करने आई हो?” दान सिंह ने उसको घूरते हुए कहा। 

“देखो मैं इस दुनिया में अब मैं कुछ ही दिन की मेहमान हूँ। मेरी दिली इच्छा है जिस घर में मेरी डोली आई थी उसी घर से मेरी अर्थी निकले,” रजनी भावुक स्वर में बोली। 

दान सिंह सोच में पड़ गया। रजनी के बहुत अनुनय-विनय करने पर दान सिंह का दिल पसीज गया। उसने सोचा कि अब यह घृणा की नहीं दया की पात्र है। वह उसे अपने घर ले आया। 

अपने घर आकर रजनी के बेजान शरीर में पता नहीं कहाँ से इतनी ताक़त आ गई थी कि अगले दिन उसने अपना पूरा घर साफ़ किया। उसका चेहरा एक अजीब से उत्साह से दमकने लगा था। 

तीसरे दिन अचानक रजनी की हालत बिगड़ गई। उसकी श्वास बहुत अटक-अटक कर चलने लगी। दान सिंह डॉक्टर को बुलाकर लाने के लिए उठा मगर रजनी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “मैं अब बचूँगी नहीं, मेरी आख़िरी इच्छा है कि मैं आपकी गोद में सिर रखकर इस दुनिया से विदा लूँ, क्या आप मेरी आख़िरी इच्छा पूरी करेंगे? 

दान सिंह रजनी के पास बैठ गया और उसने रजनी का सिर अपनी गोद में रख लिया। 

“आपको मैं बता नहीं सकती क्या आपने मेरा सिर अपनी गोद में रखकर मुझे कितनी बड़ी ख़ुशी दी है,” रजनी ने सजल नयनों से दान सिंह की ओर देखते हुए कहा।

“घबराओ नहीं मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा।” 

दान सिंह ने उसे दिलासा दिया, अब रजनी के चेहरे पर न तो अपने पति के साथ किये विश्वासघात का अपराधबोध था और न ही दूसरे पति संजीव द्वारा दिये गये छलावे की प्रवंचना बल्कि उसका चेहरा तो अपने पहले पति के प्रति निश्चल प्रेम की अलौकिक आभा से दमक रहा था। स्नेह भरी नज़रों से एक बार उसने दान सिंह की ओर देखा था, उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आई, फिर देखते ही देखते उसकी आँखें पथरा गईं थीं। 
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

ऐतिहासिक

बात-चीत

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं