अँगूठी का निशान
कथा साहित्य | कहानी धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
हिना जितना सुंदर यह नाम है, उतनी ही सुंदर मुस्कुराहट, एवं घुंघराले बालों वाली थी वह। नयनों में काजल लगाये और रेशमी दुपट्टा अपने कंधे पर डाले, अपने मँगेतर की राह देख रही थी। उसका रोज़ का नियम था, शाम को ऑफ़िस से लौटते वक़्त वैभव से मिलती। अभी कुछ ही दिनों पूर्व वैभव और हिना की सगाई हुई थी। चहुँ ओर ख़ुशियों का माहौल था। और वही ख़ुशी के भाव हिना के हँसमुख चेहरे पर नज़र आ रहे थे। जब भी हँसे तो ऐसा प्रतीत होता था कि उसके कोमल से होठों से फूल झड़ रहे हों। हिना जितना बातूनी थी, उतनी ही बातें उसके चंचल स्वभाव की होती थीं। ससुराल वालों ने भी उसे एक झलक देखते ही स्वीकार कर लिया था। हिना को अपनी बातों से सबका हृदय जीतने में ज़रा भी समय नहीं लगा था।
बस स्टैंड पर खड़े क़रीब आधा घंटा हो गया था, किन्तु डॉक्टर साहब यानी कि वैभव अभी तक अपने क्लीनिक से वापस नहीं आये। वैभव भी उसी शहर में अपना एक बड़ा सा क्लीनिक चलाता था और शहर का एक नामी हड्डी विशेषज्ञ था। एक आदर्श स्वभाव वाला वह सज्जन पुरुष, जो हरेक मरीज़, चाहे ग़रीब हो या अमीर, सभी का भली प्रकार से इलाज करता। यही कारण था कि सब उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे। छब्बीस वर्ष की उम्र में ही इतनी जान-पहचान बनाना, हरेक व्यक्ति से इज्ज़त से पेश आना; उसकी ये आदत बहुत अच्छी थी। वैभव ने कभी भी किसी को अपने क्लीनिक से उदास नहीं जाने दिया। और सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहता।
एक रोज़ की बात है। वैभव अपने क्लीनिक में बैठा मरीज़ों को देख रहा था और तभी एक व्यक्ति क्लिनिक पर आ पहुँचा। वह अपनी गोदी में एक बच्ची को उठाये हुए था जिसकी उम्र शायद आठ से दस वर्ष रही होगी। उसका हाथ की कोहनी और पोचें के बीच की हड्डी पूरी तरह से टूट चुकी थी। उस हाथ को पकड़े उसका पिता अपनी आँखों में आँसू लिये बेबस होकर खड़ा था। उसके पास पैसे ना होने के कारण रिसेप्शनिस्ट ने उसे क्लीनिक से बाहर निकाल दिया। वैभव इस माजरे को अपनी खिड़की में लगे झिलमिलीदार परदों से देख रहा था। इतना सब देखने के पश्चात वो ख़ुद को रोक ना सका। मरीज़ को बीच में ही छोड़कर अपने केबिन से बाहर दौड़ा। उसने आवाज़ देकर उस व्यक्ति को अपने पास बुला लिया। जब उसने अपनी सारी व्यथा सुनाई, तो वैभव ने रिसेप्शनिस्ट को ख़ूब फटकारा और चेतावनी दी कि अगर कभी ऐसी परिस्थिति आये तो फ़ौरन उसका इलाज कराओ। फिर वैभव ने उस लड़की का इलाज किया। ऐसी उदार प्रवृति का था वैभव और इसी अच्छाई के कारण हिना अपना हृदय हार चुकी थी।
अब जब हिना से इंतज़ार करते नहीं बना तो झट से वैभव को फोन लगा दिया। वह झल्लाते हुए बोली, “मैंने तुमसे आज सात बजे आने के लिये कहा था। और तुम अभी तक नहीं आये।”
"मैडम जी! बस आ रहा हूँ, थोड़ी देर और रुको ना।”
"थोड़ी कितनी देर?”
"अच्छा ठीक है! पंद्रह मिनट और रुको।”
क़रीब बीस मिनट के बाद जब वैभव ने अपनी गाड़ी को उसके सामने लाकर खड़ा किया तो हिना ग़ुस्से से लाल-पीली होने लगी और ताना मारते हुए बोली, “डॉक्टर साहब! क्या आप जानते हैं? अभी भी आप पाँच मिनट लेट आये हैं।”
"हम्म, आगे से ध्यान रखूँगा जी!” अपने कान पकड़ते हुए बोला।
"हम्म, कोई ना। वैसे मैं जानती हूँ, कोई मरीज़ आ गया होगा। ख़ैर कोई ना....”
वैभव ने अपने बराबर वाली सीट पर हिना को बिठाया और बहुत सारी बातें करते हुए जाने लगे। वैभव ने एक कॉफ़ी शॉप के पास अपनी गाड़ी को लगाया; जहाँ वो रोज़ाना आते। पता नहीं इस जगह पर दोनों को एक अलग ही आनंद आता और दिन भर की थकान कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेने के बाद पल में मिट जाती। थोड़ी देर में दोनों अपने अपने घरों की ओर चल दिए।
घरों में शादी की तैयारियाँ पूरे ज़ोर-शोर से चल रही थीं। सभी के हृदय में उमंगों की बौछार हो रही थी। कपड़े, दुल्हन के लहँगे से लेकर गहने आदि ख़रीदने का बहुत सारा काम बाक़ी था। वैभव के पिता कभी हिना को फोन कर अपने पास बुलाते या कभी ख़ुद आकर हिना के पापा के पास आकर ज़रूरी बातों को लेकर सलाह मशवरा करते।
इधर हिना के घर पर भी रंगाई-पुताई का कार्य भी अभी पूरा नहीं हुआ था। और शादी में केवल दस दिन ही बाक़ी रह गए थे। हिना के पिता कभी इधर फिरते तो कभी उधर। रंगाई-पुताई को अधूरा देखकर कारीगरों से बोल उठे, "अरे भाई! और कितने दिन लगाओगे?”
"बस बाबू जी कल तक ख़त्म हो जायेगा।”
"ठीक है! जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ।”
“मैंने कहा था समधी जी से कि थोड़ा वक़्त और आगे कर लो। पर वो नहीं माने। अब देखो कितनी परेशानी हो रही है। एक महीने में सभी तैयारियाँ कहाँ होती हैं? अभी तो ऐसे बहुत सारे काम बाक़ी हैं। मेरी समझ नहीं आ रहा क्या करूँ?” उन्होंने हिना के आगे अपनी चिंता प्रकट की।
“अरे पापा आप भी ना! सब हो जायेगा, तनिक धीरज रखिये,” हिना ने हँसते हुए कहा। और फिर हिना के चेहरे की मुस्कुराहट को देखने के बाद उनकी सारी परेशानी झट से ग़ायब हो गयी।
धीरे-धीरे आठ दिन और गुज़र गये। अब रिश्तेदारों का घर में आना शुरू हो गया। शाम के वक़्त पूरे घर में बच्चे खेलते हुए नज़र आ रहे थे। महिलाओं में एक अलग प्रकार की ऊर्जा आ गयी थी। जिन्होंने तरह-तरह के गीत गाकर पूरे घर को आसमान पर उठा रखा था। एक अपने हाथों में ढोलक लिए उसको बजा रही थी। और बाक़ी महिलाएँ ताली बजाने में लगी थीं।
कुछ ही पलों के बाद हिना के पिता के फोन पर घंटी बजी। तो वे बाहर की ओर आये। फोन वैभव के पिता का था। वे थोड़ी देर तो ख़ामोश रहे; आख़िरकार बोले! पर आज उनकी बोली में वो भाव नज़र नहीं आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई दर्द उन्हें बहुत ज़ोरों से तड़पने को मजबूर कर रहा है। और फिर मौन हो गये... बोलने का प्रयास किया, किन्तु उनके मुँह से कोई शब्द न निकला। इधर हिना के पिता बोले जा रहे थे। परन्तु वैभव के पिता अभी भी ख़ामोश थे।
"समधी जी....समधी जी। क्या हुआ? कुछ तो बोलो!”
"अब क्या बोलूँ? मैं लुट गया, बर्बाद हो गया। अब किस मुँह से आपको यह समाचार सुनाऊँ,” और वह रोने लगे।
"अरे बात तो बताइये ना!”
अब देर ना करते हुए, वैभव के पिता ने अपने बिलखते हुए हृदय को सँभाला और पूरा समाचार एक ही साँस में सुना दिया। अपनी बात कहकर वह ज़ोर से रो दिये। ऐसी भयभीत कर देने वाली ख़बर को सुनकर हिना के पिता की आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया। चेहरा उतर गया, दिल बैठ गया। आँखें नम हो गयीं और असहाय होकर जहाँ खड़े थे वहीं पर बैठ गये। ये देखकर हिना की माँ एवं हिना दोनों ही उनकी तरफ़ दौड़ीं और पिता को एक दम शांत देख कर घबरा गयीं, पानी का गिलास बढ़ाते हुए हिना ने पूछा, "पापा सब ठीक है ना?”
"बेटा! तू अंदर जा,” पिता ने सावधान होकर कहा।
"नहीं, मुझे नहीं जाना। क्या बात है? पहले बताओ।”
"मैं कह रहा हूँ। अंदर जा......”
घर में गूँजती संगीत की ध्वनि अब बिल्कुल शांत हो गयी थी। कुछ महिलाएँ अपने घर चली गयीं। और कुछ महिलाएँ धीमे स्वर में कानाफूसी करने लगीं।
“अजी बड़ा बुरा हुआ” एक महिला बोली।
“हम्म! बहुत बुरा हुआ जीजी,” दूसरी ने जवाब देते हुए कहा। “लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? जो नसीब में लिखा है, वो तो भुगतना ही होगा। इतनी सारी सजावट, इतना इंतज़ाम। चारों ओर ख़ुशी का माहौल था और अब एक पल में ही सब.....”
किन्तु हिना के अभी तक कुछ समझ नहीं आ रहा था। तो वह बार-बार कहने लगी, “कोई मुझे बतायेगा, क्या हुआ है?”
पापा की स्थिति सामान्य हो गयी थी। वो हिना के पास आए और उसे अपने हृदय से लगाकर रोने लगे। पिता को रोता हुआ देखकर वो भी रो दी। आँखों में आँसू लिये बोली, “कोई तो बता दो मुझे। क्या हुआ है यहाँ?”
सब मालूम होते हुए भी माँ कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं। हिना के बार-बार पूछने पर हिना के पिता से रहा न गया। उन्होंने सोचा आख़िर बताना तो है ही, कब तक छुपाउँगा?
“मेरी लाड़ो!...” और सारा हाल बयाँ कर दिया।
सुनकर हिना की आँखों से आँसू झरने लगे। जो अभी हँसती फिरती थी, गुमसुम सी होकर अपने घर के आँगन में ही बैठी रह गई। इंतज़ार ख़त्म हो गया! यादें भी सिमट गयीं। ख़ुशहाल ज़िंदगी में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। आँखों से गिरते हुये आँसू, उसके दिल का दर्द कह रहे थे। नन्ही चिड़िया की भाँति उछल-कूद करने वाली हिना ख़ामोश होकर बीते दिनों को याद कर रही थी। किन्तु अभी तक उसके मुँह से ज़रा भी चीख़ नहीं निकली। वह अपने दर्द को भीतर ही सहती रही। फिर असहाय सी ज़मीन पर गिर गई। आँखें बंद हो गयीं, होंठ ख़ामोश, हाथों की मुट्ठी बँध गयी। बस साँसें बरक़रार चल रही थीं।
जल्दी से डॉक्टर को बुलाया गया। फिर चाचा-चाची को उसके पास छोड़कर हिना के माता-पिता वैभव के घर चले गये। वहाँ का माहौल अत्यंत दुःखद था। महिलाओं के चीख़ने की आवाज़ें ज़ोर से आने लगीं। किसी को दौरा पड़ता देखकर वो ख़ुद को सँभाल ना सके। और आँसुओं को थामे वैभव के पिता को ढाढ़स बँधाने लगे। क्लीनिक का पूरा स्टाफ़ आया हुआ था और पड़ोस के सारे लोग भी। आख़िर वैभव सभी का प्यारा जो था और वही वैभव आज हुई दुर्घटना में, इस दुनिया को सदैव के लिये अलविदा कह गया। धीमी आवाज़ में बोलने वाला, अपनी एक मुस्कान से सभी के हृदय पर राज करने वाला वैभव बस यादों में रह गया था।
पंद्रह दिन गुज़र गये। हिना अपने हाथ में पहनी अँगूठी को निहारने रही थी। अब उसकी सुंदरता का कोई मोल ना रहा था। नम आँखों से अपने मँगेतर को याद करती जो अब कभी उसके पास नहीं आ सकता। कॉफ़ी शॉप पर देर शाम तक बिताये उस वक़्त को याद करती, तो फूट-फूट कर रोने लगती और फिर से अँगूठी से बात करने लगती।
यह हाल जब उसके माता-पिता से देखा नहीं गया तो एक दिन उसके पापा बोले, "हिना बेटा, वो अँगूठी चाहिये।”
"लेकिन क्यों पापा?” हिना की आँखों में आँसू भर आए।
"वापस भेजने के लिये। अब इससे तुम्हारा कोई नाता नहीं रहा।”
"किन्तु पापा, मैं अभी भी वैभव से प्यार करती हूँ।”
"मर गया है वो! समझती क्यों नहीं है तू?”
"आपके लिये! मेरे लिए नहीं!” हिना को ग़ुस्सा आने लगा था।
"हिना बेटा, थोड़ा ठंडे दिमाग़ से सोच।”
"क्या सोचूँ? ठंडे दिमाग़ से... मेरा सब कुछ एक पल में ख़त्म हो गया। मैंने कितने सपने सँजोये थे उसके साथ। अब कुछ भी न रहा।”
"बेटा, मैं समझता हूँ।”
"कुछ भी नहीं समझते आप! मेरे पास ये अँगूठी ही तो है, जो उसकी यादों को ताज़ा करती है। और आप... इसे वापस भेज रहे हैं। अगर वापस ही भेजनी है तो कोई और अँगूठी भेज दो।”
"नहीं बेटा, ये ही वापस जायेगी। और भला अब वो इंसान ही नहीं रहा तो क्यों इस अँगूठी को रखें? और हमसे तुम्हारा यह हाल देखा नहीं जाता। लाओ वापस दो.....”
"नहीं, पापा...”
"हिना, वापस दो।”
"मैं नहीं दूँगी।”
काफ़ी ज़िद करने के बाद भी जब, हिना ने अँगूठी वापस नहीं की तो पिता ने उसके हाथ से ज़बरदस्ती उस अँगूठी को निकाल लिया। वो रोती रही, माँ पल्लू से अपनी नम आँखों को पोंछने लगी। बिखरे बालों को लेकर हिना बिलखती, घर की देहली पर बैठी 'अँगूठी के निशान' को देखती रही.......
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