मेरी यादें
काव्य साहित्य | कविता धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’1 Aug 2019
सुबह से लेकर शाम तक,
यूँ ही घड़ी की ओर देखना।
दफ़्तर में बैठकर,
तेरे बारे में सोचना।
चाहता हूँ फिर से,
तेरी हँसी को खोजना।
उन बिखरी हुई यादों को,
फिर से समेटना।
जानता हूँ ये मुमकिन नहीं,
फिर भी हो मेरे दिल में।
नज़रें ढूँढ़ती हैं मेरी तुम्हें,
हर शाम-ए-महफ़िल में।
रातों को यूँ ही,
ख़ुद से कुछ पूछना।
उन अँधेरी सड़कों पर,
आवारा सा घूमना।
ज़िंदगी भी अब मेरी,
कुछ बेरंग सी हो गयी।
इन शोर करती गालियों में,
मेरी हँसी जो खो गयी।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अट्टालिका पर एक सुता
- आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
- काश!
- किस अधिकार से?
- कैसे बताऊँ?
- कोई जादू सा है
- खिड़की
- चाय
- जाग मुसाफ़िर, सवेरा हो रहा है....
- नव वर्ष आ रहा है
- ना जाने कब सुबह हो गयी?
- ना जाने क्यूँ?
- नफ़रतों के बीज ही बो दूँ
- बसंत आ गया है...
- मेरी यादें
- मैं ख़ुश हूँ
- लो हम चले आये
- शाम : एक सवाल
- सन्नाटा . . .
- सुकून की चाह है . . .
- स्वप्न
- हम कवि हैं साहेब!!
- क़िस्से
- ज़रा उत्साह भर...
गीत-नवगीत
नज़्म
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं