ना जाने कब सुबह हो गयी?
काव्य साहित्य | कविता धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
तेरे मीठे से ग़ुस्से को,
संजोकर अपने ख़्वाबों में।
तेरी पाबंदियों को,
ख़ुद से महसूस कर, रातों में...
तन्हा मुस्कुराते हुये,
ना जाने कब सुबह हो गयी?
आधी खुली आँखों से,
चकाचौंध से जूझता रहा हूँ।
हर दफ़ा की तरह आज भी,
अपने दिल को समझाता रहा हूँ।
तारों की छाँव में बैठे हुए,
ना जाने कब सुबह हो गयी?
सुनसान पड़ी राह में,
फिर से चहल-पहल होने लगी।
अँधेरा सा छाया है, मेरी आँखों तले,
सीने में एक आह सी उठने लगी।
छत की मुँडेर से बातें करते हुए,
ना जाने कब सुबह हो गयी?
बिस्तर पर छूटी मेरी नींद,
सवाल करती रही रात भर।
क्या है तेरी ख़ामोशी की वज़ह?
मैंने बस चाँद को देखा रात भर।
बस यूँ ही अँगड़ाई लेते हुये,
ना जाने कब सुबह हो गयी?
एक नई उमंग लिये
उड़ते हुये पंछी चहकने लगे।
सोये हुये सपने, फिर से...
साँसों में उभरने लगे।
एकटक सोचते हुये,
ना जाने कब सुबह हो गयी?
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