काश!
काव्य साहित्य | कविता धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’15 Jul 2024 (अंक: 257, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
हुनर सीखना है मुझे,
थोड़ा जीने का, इतराने का,
और थोड़ा मुस्कुराने का . . .
यह कमियाँ आज भी
लिए फिर रहा हूँ।
ना जाने क्यों?
अजीब कशमकश सी है . . .
हृदय के आंतरिक हिस्से में,
जो मेरे मस्तिष्क के भीतरी भाग में,
अपना स्थान बनाने को आतुर है।
मेरे लिए भूल पाना मुश्किल है,
अपना बचपन, बीते दिन . . .
और मेरी क़िस्मत के वो
अधूरे रद्दी बने पन्ने . . .
उलट-पुलट हो रहे हैं,
मेरे मन की आँधी में . . .
प्रयासरत हूँ।
फिर से मुस्कुराने को
टटोल रहा हूँ,
मेरे सुनहरी यादों की पोटली को
जो दबी है कहीं,
अनेक ज़िम्मेदारियों तले . . .
काश!
मेरे नेत्रों की चमक
लरज़ते होंठों की ख़ुशी
हृदय की शीतलता
लौट आए स्वतः ही . . .
क्या होगा ऐसा?
नहीं!
बस द्वन्द्व बाक़ी है मेरा,
मेरा स्वयं से . . .
मेरी हरेक परिस्थिति से,
हरेक क़िस्से से।
काश!
ऐसा कर पाऊँ मैं . . .
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अट्टालिका पर एक सुता
- आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
- काश!
- किस अधिकार से?
- कैसे बताऊँ?
- कोई जादू सा है
- खिड़की
- चाय
- जाग मुसाफ़िर, सवेरा हो रहा है....
- नव वर्ष आ रहा है
- ना जाने कब सुबह हो गयी?
- ना जाने क्यूँ?
- नफ़रतों के बीज ही बो दूँ
- बसंत आ गया है...
- मेरी यादें
- मैं ख़ुश हूँ
- लो हम चले आये
- शाम : एक सवाल
- सन्नाटा . . .
- सुकून की चाह है . . .
- स्वप्न
- हम कवि हैं साहेब!!
- क़िस्से
- ज़रा उत्साह भर...
गीत-नवगीत
नज़्म
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं