गौरी : एक मोची
कथा साहित्य | कहानी धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’15 Nov 2019
रोज़ाना की तरह वो आज भी अपनी अटैची लेकर अपने घर से निकली, बस स्टैंड के पास एक पीपल के पेड़ की छाँव में अपनी गद्दी को बिछाया और अपना सामान लगाने लगी। उसकी नज़रें इधर-उधर ग्राहकों को तलाश रही थी।
मैं बस ऑफ़िस के लिए निकल ही रहा था, और आज मुझे देर भी हो गयी थी। अब जैसे ही मैं जल्दी-जल्दी बस की तरफ़ दौड़ा अचानक से मेरे सैंडल की पट्टी टूट गयी। मुझे सैंडल पहन कर चलने में काफ़ी तक़लीफ़ हो रही थी। तो मेरी नज़रें किसी मोची को तलाश रही थीं। काफ़ी देर तक कोई नहीं दिखा, तभी मेरी नज़र उस पीपल के पेड़ के नीचे बैठी लड़की पर पड़ी। उसे देखने के पश्चात मैं स्तब्ध सा रह गया। आश्चर्यचकित होकर मैं उस लड़की की तरफ बढ़ने लगा।
तभी उसके चेहरे पर एक रौनक़ सी आ गयी, और मुझसे कहा, “साहेब सैंडल सही करना है?”
मैंने मौनावस्था में हाँ में जवाब दिया, क़रीब दस मिनट के बाद जब सैंडल जुड़ गया तो मैंने उसे बीस रुपये का नोट पकड़ा कर आगे बढ़ने लगा। मैं उस लड़की के बारे में सोच ही रहा था, तभी पीछे से एक आवाज़ आई, “अरे साहेब. . ., अपने पैसे तो लेते जाइये, सैंडल जोड़ने के केवल दस रुपये ही हुए. . .”
ये सुनकर मैं उसके चेहरे की तरफ़ देखने लगा। धूप में उसके माथे से पसीने के बूँदें उसके गालों पर होकर गुज़र रहीं थीं।
साँवली सी वो लड़की, जिसकी उम्र चौदह-पन्द्रह वर्ष रही होगी।
और ऊपर से मोची. . . कोई ना कोई तो कारण अवश्य होगा? तभी उसने आवाज़ दी. . . “अरे साहेब क्या सोच रहे हो? ये लो अपने दस रुपये. . .” और पैसे मेरे हाथ में थमा कर चली गयी।
आज मेरा ऑफ़िस में ज़रा भी मन नहीं लगा बस. . . उस लड़की के बारे में सोचने लगा था।
मेरे मन में जिज्ञासा थी उसके बारे में जानने की. . . पर कैसे?
मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तभी मैंने एक तरक़ीब निकाली और दूसरे दिन आधा घंटे पहले ही अपने घर से निकल गया।
अब जैसे ही बस स्टैंड पर पहुँचा, तो उस लड़की के समीप जाकर ज़ोर से बोला।
“ऐ लड़की ये कैसा सैंडल जोड़ा है! एक दिन भी नहीं चला।”
ये सुनकर उसने मुझे एक जवाब दिया। जिसे सुनने के पश्चात मैं भौचक्का होकर उसके चेहरे की तरफ़ देखने लगा।
“गौरी. . . गौरी नाम है मेरा, आप मुझे गौरी बुला सकते हैं,” और झट से मेरे हाथ से सैंडल लेकर उसे सही करने लगी।
मैं उसे दस रुपये पकड़ा आगे बढ़ने लगा, तभी गौरी ने आवाज़ देकर कहा, “ये आपके दस रुपये. . .पकड़ो कल सैंडल सही नहीं जुड़ा था तो आज सही कर दिया। और इस बात के पैसे नहीं लिए जाते।”
उसकी ख़ुद्दारी देख कर मेरे होश उड़ गए, ऐसी लड़की आज तक मैंने नहीं देखी थी। ये उसके संस्कार थे या समाज से सीखी वो सभी बातें जो एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का बोध कराती हैं।
अब मेरे मन में सवालों का पहाड़ टूट पड़ा था, लेकिन ये जवाब सिर्फ़ गौरी के ही पास थे।
परन्तु एक सवाल ये भी था, कि ये सब कैसे जान सकता हूँ?
तो अब मैं हर तीसरे दिन किसी ना किसी बहाने से उसके पास चले जाया करता। कभी बैग की चैन ख़राब करके, तो कभी जूते सही कराने। मैं क़रीब चार से पाँच बार उसके पास गया, किन्तु कुछ भी नहीं समझ पाया।
जब भी उससे मिलता गौरी की ज़ुबां से कोई न कोई एक ऐसी बात निकल जाया करती, जिसे सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो जाया करता।
और फिर मैं गौरी के बारे सोचने को विवश हो जाता। अब मैं हर शाम कुछ देर उस पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर यूँ ही अपना वक़्त बिताया करता, शायद मुझे गौरी के बारे में कुछ जानने को मिले।
किंतु मैं अभी तक कुछ भी मालूम ना कर सका. . .। एक रोज़ मैं पीपल के पेड़ के नीचे खड़ा था गौरी भी अभी बैठी हुई थी। उसके घर जाने का वक़्त भी हो रहा था. . .।
तभी गौरी की नज़र मुझ पर पड़ी। उसके चेहरे पर एक मंद-मंद मुस्कान की झलक मुझे देखने को मिल रही थी। मैंने भी हल्की सी हँसी देकर उसके समीप गया, और उससे कुछ बात करने लगा।
तभी उसने मुझसे एक सवाल किया, “भैया अब तो नहीं उखड़ा आपका सैंडल?”
मैंने ना में सर हिलाया और अपने घर की तरफ़ आने लगा।
आज मैंने गौरी से उसके बारे में कुछ पूछने का प्रयास किया, किन्तु मेरी सारी कोशिशें नाकाम हो रहीं थीं।
मैं चाह कर भी गौरी से कुछ न कह सका, क्यों कि मैं जानता था, अगर मैं इस विषय पर गौरी से कोई चर्चा करूँगा तो उसके मन को ठेस पहुँचेगी। क्योंकि गौरी काफ़ी समझदार और ख़ुद्दार लड़की थी। उसने आत्मनिर्भर होना इस समाज में रहकर ही सीखा था। और ये सब पूछकर मैं उसके हृदय को आघात नहीं पहुँचाना चाहता था।
करीब चार दिन गुज़र गए थे, गौरी बस स्टैंड नहीं आयी. . .!
जब पाँचवें दिन मैं ऑफ़िस से वापस आ रहा था। तो मैंने देखा कि उसी पीपल के पेड़ के नीचे गौरी अपनी गद्दी के सहारे सर रख कर उदास बैठी हुई थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था. . . जैसे उसके ऊपर दुखों का कोई पहाड़ टूट पड़ा हो।
ये देख मेरा मन दुखी हो गया, और अनेक सवाल मेरे अंतर्मन में उठने लगे। और कुछ सवाल मैं अपने आप से करने लगा।
“क्या गौरी ने आज खाना नहीं खाया?”
“नहीं. . . नहीं, शायद आज गौरी की बोहनी नहीं हो पाई? जिससे उसका चेहरा उतरा हुआ है।”
“लेकिन ये भी हो सकता है, इसे कोई परेशानी हो? पर मैं इसे कैसे पूछूँ?”
मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक गौरी अपना सामान इकट्ठा करने लगी। उसने अपनी पेटी को उठाया और अपने कंधे पर डाल कर अपने घर की तरफ़ जाने लगी।
और उसके पीछे-पीछे मैं भी जाने लगा, क़रीब पौना किलोमीटर चलने के पश्चात गौरी अपने घर पहुँच गई।
छोटी सी गली से होकर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँची। शाम के 7 बज चुके थे तो अँधेरा भी हो गया था। और सबके घरों के बाहर बत्ती जली हुई थी। किन्तु गौरी के घर के बाहर बिल्कुल अँधेरा था।
ये देख कर मैं चौंक गया। परन्तु सोचा जिसके जीवन में पहले से ही इतना अँधेरा हो उसको इस अँधेरे से क्या फ़र्क पड़ने वाला था।
सामने चलकर जैसे ही गौरी आगे बढ़ी एक कमरे में हल्की सी बत्ती जली हुई थी।
वहाँ ना तो थी माँ और ना ही पापा. . . अब जैसे ही गौरी ने अपनी पेटी कंधे से उतारी, तो आवाज़ सुनकर. . . एक आठ वर्षीय लड़का गौरी की तरफ़ दौड़ता हुआ आया और ज़ोर से बोला, “दीदी अब मेरा बुखार सही हो गया। मुझे और दवाई की ज़रूरत नहीं है। और अब तुम अच्छे से काम कर सकोगी। मेरे लिए व्यर्थ की चिंता अब ना करना, अब तुम्हारा भाई सही हो गया।”
इतना कहकर वो गौरी के हृदय से जा लगा। गौरी ने भी अपने आँसू पोंछते हुए अपने भाई को सीने से लगा लिया था। और दोनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
थोड़ी देर के बाद गौरी ने अपने थैले से एक पन्नी निकाली और अपने भाई की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “बता इसमें क्या है?”
भाई तरह-तरह की चीज़ों के नाम बताने लगा. . . लेकिन आख़िर में पता चला कि उसमें पकोड़ी थीं जो उसने दोपहर में अपने लिए ख़रीदी थीं. . .!
सच में गौरी को समझना बहुत मुश्किल था।
"जिनके हौसले बुलंद होते हैं वो किसी के अहसानों के मोहताज़ नहीं होते. . ."!
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