अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हम कवि हैं साहेब!!

 

प्रश्न—
क्या करते हो तुम? 
यूँ ही कुछ भी लिख देते हो। 
कभी राजनीति, कभी महिलाओं पर, 
कभी न्याय-व्यवस्था, 
अरे बीमारियों पर भी लिख देते हो। 
इनको तो छोड़ो। क्यों भाई क्यों? 
लिखना ज़रूरी है क्या? 
और कहते हो। 
हम कवि हैं साहेब! 
 
उत्तर—
हाँ! हम कवि हैं साहेब! 
 
कभी दंगों और फ़सादों को
कभी दुनिया के हालातों को। 
पहुँचाते हैं संदेशा अपना, 
लिखते हैं, हम अपने भावों को, 
लोगों को जागरूक करने की ख़ातिर। 
अपनी कविताओं के माध्यम से, 
कभी लिखते हैं जाबाज़ों को। 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 
 
कुछ ओझल से नयनों की बोली, 
कभी उठती बाला की डोली। 
कभी सर्दी, गर्मी और बरसातों पर, 
सुनहरे दिन और चाँदनी रातों पर। 
कभी सूनी साँझ सँभालें हम 
और कभी जज़्बातों पर
खिल जाते हैं, हृदय सभी के, 
पढ़कर, सुनकर ख़यालातों पर। 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 
 
प्रातः मंजुल बीच सरोवर, 
खिले कुमुद की पंखुड़ियों पर। 
कभी जेष्ठ मास में कूक रही, 
कोयलिया की बोली पर। 
दहकते हुए अंगारों से, 
कभी बसंत की मस्त बहारों से। 
सींचते हैं अपनी कविता को, 
कभी असफलता के भारों से। 
और कैसे बतायें? कि हम कवि हैं साहेब! 
 
झरनों की धाराओं पर, 
कभी मन में उमड़ी आशाओं पर। 
खेत और खलिहानों पर, 
कभी बहते हुए अरमानों पर। 
कभी प्रियतमा की बिसरी यादें, 
और दिये हुए सामानों पर। 
सुर्ख़ नयन ख़्वाबों की डोरी, 
कभी डूबी हुई मझधारों पर। 
लिखते हैं अपना अनुभव, 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

गीत-नवगीत

नज़्म

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं