आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
काव्य साहित्य | कविता धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’1 May 2020 (अंक: 155, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
छोड़ कर मुझको,
अधूरी राहों में।
तन्हाई के इस सफ़र में,
झूठा अपनापन दिखलाकर।
एक घाव दे गये हो तुम,
आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
मेरा सब कुछ छूट गया,
जीवन मेरा रूठ गया।
अस्तिव सा मिट गया हो मेरा,
ऐसा दर्द दे गये हो तुम,
आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
मिट भी जाऊँ, कोई ग़म नहीं,
आँसू भी आँखों में अब कम नहीं।
यह क़िस्सा बीच में ही,
छूटा सा लगता है।
शायद कहीं खो गये हो तुम,
आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
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