असंतोष क्यों?
काव्य साहित्य | कविता डॉ. नीलिमा रंजन1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बतियाते हुए प्रश्न उछाला
मोहना से
“लगती हो स्वस्थ, प्रसन्न आज,
हमेंं भी बताओ इसका राज़“
और बूझो तो उत्तर क्या पाया
कैसा पाया
“उफ्! क्लांत हूँ इस जीवन से
पतिदेव जाते हैं प्रात: से काम पर
और देर रात आते हैं
साथ ले आते हैं
खेतों से पालक, मेथी, मटर, सरसों ढेर सारा,
और मैं बस छीलती, सहेजती रहती हूँ
दिन भर साथ है यह छुटकी,
यह टीवी, यह मोबाइल,
ओफ़्फ़ यह दर्द मरने भी नहीं देता,
कैसे उल्लसित रहूँ बताओ तो?”
अब बारी थी हमारी
बहुत विचारा, प्रश्न भी किए स्वयं से
किन्तु रह गए निरुत्तर,
चाह कर भी बोल नहीं पाए
“कब से अस्वस्थ तुम मोहना,
उस पर पति का निश्छल प्रेम
पूछ परख नि:शर्त
फिर भी असंतोष क्यों बहना?”
आज देखा
सद्य: पदोन्नत वासु को,
कार्यालय के वाहन से उतर,
कोट की सलवटें निकालते,
मुस्कुरा कर बधाई दे डाली
और हाय रे ग़लती हमारी
दावत की माँग भी कर डाली,
बस यही तो त्रुटि कर डाली,
वासु ने सिर हिला, ज्ञान दे ही दिया
“किस बात की दावत भाई?
पदोन्नति ने तो शामत ही बुलाई
कब सुबह, कब शाम,
बस काम, काम और काम,
क्या कहें आपसे,
किस मुश्किल में हैं प्राण“
अवाक् हम
बोलने को कुछ शेष नहीं,
पर मन ने कान मेंं सरगोशी की
“अब असंतुष्ट क्यों भाई?
बाट जोहते कब से इस पल की,
पदोन्नति की वर्षों से,
आज खिन्नता क्यों आई“
अभी अभी बात की
नवविवाहिता रीमा से
(बहुप्रतीक्षित विलंबित विवाह)
दे डाली बधाई,
और विवाह मेंं ना पहुँच पाने का
लँगड़ा सा बहाना भी बनाया,
किसे थी दरकार बधाई की, बहाने की
उधर से उत्तर आया
“क्या दीदी,
कैसा विवाह, कैसी बधाई,
सभी कुछ एकदम बेकार,
माँ बाबूजी ने तो बस
बोझ ही दिया उतार
और पतिगृह, बस जान लो
यूँ ही सा बस“
कहने सुनने को बचा ही क्या?
चालीस की वय मेंं सुदर्शन इंजीनियर पति
वर खोजने मेंं समर्थ हो पाने,
माता पिता का संतोष
और रीमा का आकलन।
यह रीमा, तत्पर थी
खंभ को भी वरमाल पहनाने।
किन्तु अच्छे से बेहतर पाने की लालसा
आज भी है खिन्न,
त्रुटियाँ गिनाने।
लो आज ही परिणाम आया,
केंद्रीय मंडल का,
अनुज का मुख देखा उतरा
हृदय धड़क गया,
कहीं अनुत्तीर्ण तो नहीं?
मन ने धीरज धरा,
सदा से मेरिट मेंं आने वाला वह,
कुछ सँभल कर प्रश्न कर ही डाला,
अश्रुसिक्त नयनों को नत कर,
भरे गले से बोला
“भाई!
चूक गया मैं
कहाँ त्रुटि कर दी,
कदाचित चित्त घर पर छोड़
परीक्षा देता रहा मैं
चार अंक और आते
तो निन्यानवे प्रतिशत बनते।”
ओफ़्फ़!!!
माथा थाम लिया मैंने
कोई अंत नहीं असंतुष्टि का,
किन्तु हे मानव!
कभी तो करना होगा
उपलब्ध मेंं संतोष?
ये अपराग क्यों?
किस कारण यह अतृप्ति?
कारण अनगिन, मनोरचना अदम्य
चलें संज्ञान लेते हैं हेतु का
पाते हैं लंबी सूची,
क्या यह है असमानता
आंतरिक और बाह्य चिंतन शैली की,
अथवा है यह
यथार्थ को विस्मृत कर जीने की द्विविधा
या कल्पना लोक मेंं विचरण,
और भी हैं सूची मेंं
तृष्णा, निरुद्देश्य जीवन,
वास्तविकता से पलायन
व अंतहीन कामनाएँ।
समझना होगा सत्य,
स्वीकारनी होगी होनी
खोजना होगा संतोष
मानना होगा कि
यह ईश प्रदत्त जीवन
है सर्वोत्तम
देना होगा वचन स्वयं को
जीना है प्रसन्न हृदय हो
तृप्त चित्त से,
और रहना होगा तुष्ट
साधने यह तन-मन।
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