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चेतन प्रवाह

यह चेतन मन का प्रवाह,
अंतरंग ऊहापोह का
निष्पत्तिहीन रह जाना,
पुन: पुन: विपरीत, विलोम
विश्वास- अविश्वास
आभासी दृष्टिभ्रम,
समाज की अभियोगपूर्ण दृष्टि,
अदेखा-अनचीन्हा यथार्थ अथवा
क्षणभंगुर यथार्थ का भ्रम
गहन तीव्र क्षण ,
कहाँ ले जाता है ?
 
मोहित करता जीवन
पुष्प, वल्लरी, सुख,
रंग, तितली और भी ना जाने क्या क्या
प्रियजन, परिचित, संबंधी
सर्वत्र मंत्रमुग्ध से हम
विपरीत खोने सा लगता है
और चलता जाता है
जीवन प्रवाह, चेतन प्रवाह ।
 
हावी होती जाती है
क़दम दर क़दम ,
बरस दर बरस ,
चढ़ती बढ़ती वय।
समक्ष होता है,
अनचीन्हा, अनजाना, अनचाहा- आज
मायाजाल,
विषाद, खिन्नता, निराशा
पलट कर ना आने वाली स्मृतियाँ।
 
किशोरावस्था का सावन,
बढ़ती वय का कंपन
कौतुक, अनुभव
ब मिल कर दे जाता है
नश्वरता का प्रश्न
और खोखला सा केंद्रबिंदु
साथ ही चलता है
जीवन प्रवाह, अनवरत ।
 
अध्यात्म आ खड़ा होता है
नश्वरता के सम्मुख
और प्रारंभ होता है
अभ्यंतर एकालाप,
स्वगत कथन,
असंख्य स्पर्शन
अध्येता से वार्तालाप का प्रयास
कितना संभव
चेतन प्रवाह साक्षी है
साझेदार है
नियति का, कर्म का, चेष्टा का ।
 
क्या हुतात्मा होना सरल ?
छलना है
जीवन के प्रबल प्रवाह समक्ष समर्पण,
क्योंकि, झंझावात सा प्रवाह
बलात् करवा लेता है समर्पण।
 
किंतु
कौन होना चाहता है
बंजर भूमि सा,
अग्नि पाथर सा
कौन हो जाना चाहता है
परछत्ती सा
रिक्त, अज्ञात, उपेक्षित ?
कोई नहीं चाहता
सर्द, तीक्ष्ण, नुकीली,
आक्रामक, झकझोरती
शांति।
 
वरन् दरकार रहती है
शांति
निराकार, अमूर्त
एक सद्यजात प्रात: सी
माँ के आँचल से झाँकते शिशु सी,
अबोध, निश्छल,
कर्णप्रिय,
पक्षियों के कलरव सी,
तितली के पंखों सी,
रपटती चमकीली माछी सी,
माटी से प्रस्फुटित होती
कोंपलों सी,
मौन के संगीत सी।
 
और यह चेतन मन का प्रवाह
ले जाता है मानस को
ऐसी ही अनजान राहों पर,
उलझन सुलझाने को,
मानव बन उठ खड़े होने को।
वाह!! यह चेतन क्रम !

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