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असफल-प्रेम! 

जब सूखी मिट्टी को नमकीन पानी से सेंकते हुए
सोंधी-सोंधी महक में लबरेज़ प्रेमिका
चाक पर गढ़ती रही अपने जिस्म को परत-दर-परत 
तो महज़ बना लेना चाहती थी कोई आकर्षक छबि! 
 
बड़ी जद्दोजेहद के बाद 
अपनी ही बुझी आँखों में 
झाँकती रही मौन 
घंटों . . . निहारती रही वो ख़ुद को
गला सूख जाता 
कंठ फटने को व्याकुल हो उठता! 
 
मोम सी पिघलती और फिर गिर जाती 
जाने ये कैसे फोड़े पड़े हैं 
मन अंदर तक छेद जाते 
कई बार गिरती, रेत सी ढहती और फिर बनाती 
एक नया चेहरा, एक नया शरीर, एक नया बुत! 
 
प्रेममयी-विवशता ने हर बार उसके हाथ को चूमा
और दिखावे एवं छल को ज़ोर से फटकार लगाई
बड़ी गहरी है उसकी मनोभावना अपने साईं के प्रति 
असफलता ने उसके पाँव में प्रेम के फूल बिखेर दिए! 

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