वस्त्र
काव्य साहित्य | कविता नीतू झा1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
वस्त्र तो बस एक व्यवस्था है
शरीर के नंगेपन को ढकने की
वह ऐसी मानसिकता भी है
जो जिस्म की प्यास को उजागर
नहीं होने देती
वस्त्र उस विकास की कहानी कहते हैं
जिसमें उसकी पाशविकता छिपी होती है
क्या वस्त्र पहनने भर से
आदमी की वासना ख़त्म हो जाती है?
अगर वासना रहित हो आदमी
तो वस्त्र उतार देने पर भी
उसकी इज़्ज़त बनी रहती है
दिगम्बर जैन मुनी हमें यही तो
सिखाते हैं
लेकिन आदमी अब तो पशु से भी ज़्यादा
पशु हो गया है
जब कामुकता उसके सिर पर सवार होती है
तब वह तो अनखिली कलियों को भी मसल देता है
बेटियों और माँ जैसी वृद्धाओं को भी
अपनी कामुकता का शिकार बना लेता है
बिना किसी संकोच के
क्या वस्त्र पहनने भर से
वह इज़्ज़तदार होने का हक़ रखता है?
वस्त्रों से तो केवल शरीर ढँकता है
आत्मा नहीं
जिसकी आत्मा पवित्र है
वह बिना वस्त्र के भी पवित्र ही होता है
उसकी पवित्रता पर कोई भी दाग़ नहीं लगा सकता।
पिपासा केवल शरीर की नहीं होती
पवित्र आत्मा की भी होती है
तभी तो मीरा बेख़ौफ़ हो कहती है—
"मेरे तो गिरिधर गोपाल
दूसरो न कोई"
और गोपियों के साथ निःशंक क्रीड़ा करते
कृष्ण की कोई पूजा नहीं करता।
आओ इस पवित्र पिपासा की पूजा करें
वस्त्र के आवरण की चिंता नहीं करें।
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