अँधेरी कोठरी
काव्य साहित्य | कविता नीतू झा1 Jun 2021 (अंक: 182, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
हमारे गोले का
एक बड़ा हिस्सा
श्मशान में तब्दील हो चुका है
यहाँ लाशें चलती हैं
और ज़िंदा..
अँधेरी कोठरी में बंद हैं
ये अँधेरों से नहीं घबरातीं
रोशनी की शीतलता
इन्हें जलाती है
चीख़ उठती हैं ये,
तड़पती हैं,
और उससे भागना चाहती हैं
नहीं नहीं...
ये अभी-अभी
तो हरगिज़ नहीं हुआ
सदियों से इसकी शुरुआत है
जब तराशा गया था बुत
काट दिए गए थे हाथ
कोयले की भट्टी में
झोंक दी गयी थी मनुष्यता
जब भी प्रेम को
नींद की गोली देकर
कफ़न में लपेटा जाएगा
और सुला दिया जाएगा ताबूत में
तब तो डरेंगी ही चिड़ियाँ
मुरझाने लगेंगे फूल
और दहक उठेगा सारा सहरा
जब सिर्फ़ मीथेन होगा
फिर रहा होगा...
बालू, पत्थर और बर्फ़
उम्मीद की फुहार
तब भी बरसी होगी
बड़े-बड़े पत्थरों ने
ज़रूर देखा होगा जीवन
फिर
काल ने...
बड़ी ही बारीक़ी से
पत्थरों को तराशा
दे दिया गया अपंग तराजू
बना दिया
गूँगा बहरा
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं